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प्रेमचन्द की कहानियाँ 20

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :154
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9781

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बीसवाँ भाग


मिस गुप्ता इस पुरदर्द खत को पढ़कर बहुत रोईं। लाहौर में जब मालूम हुआ कि ये लोग वापस आ रहे हैं तो लोगों को ताज्जुब हुआ। दो महीने का सामान करके चले थे और अनुमान ये कहता था कि वहाँ की दिलफ़रेबियों से इतनी जल्दी तबीयत संतुष्ट न हो, मगर इसके प्रतिकूल ये लोग एक ही माह में उक्ता गए। जरूर कोई-न-कोई बात है। आखिर वह वक्त आया। दोस्त उनका स्वागत करने के लिए स्टेशन पर पहुँचे। गाड़ी आई और मियाँ-बीवी उसमें से उतर पड़े। न कपड़ों का बक्स था, न ट्रंक, न बिस्तर। सुरेंद्र की आँखें शराब से सुर्ख हो रही थीं और रोहिणी, आह! वो नया खिला फूल अब मुर्झा कर पीला हो गया था। चेहरा ऐसा निचुड़ा हुआ था, मानों अतृप्ति और निराशा की तस्वीर थी। बाद को मालूम हुआ कि सारा असबाब शराब की नज़र हुआ और जेवर जुए के। कान के बुंदे तक न बचे।

लाहौर में आकर रोहिणी तो अपने शिक्षा देने में व्यस्त हुई और सुरेंद्र शराब पीने में। यूनियन का संगठन अब बिखर गया था, इसलिए केवल शराब के, मनोरंजन का और कोई जरिया बाकी न रहा। अगर कभी रोहणी समझाने की कोशिश करती तो सुरेंद्र के तेवर बदल जाते। प्रिंसिपल कॉटन ने ये समझकर कि बेकारी ने उसकी ये गत बना रखी है, उसे अकाउंटेंट के दफ्तर में एक बहुत माकूल जगह दिला दी, मगर जिस शख्स का हासिल करने का समय गधे की तरह मस्तियों में गुज़रा हो, वो सुबह से शाम तक दफ्तर में खुश्क काग़ज़ों और मन को तंग करने वाले हिसाब के साथ क्यों सर मारता? एक रोज हेड क्लर्क ने उसे चंद गिनतियों का हिसाब तैयार करने का हुक्म दिया। हिसाब लाखों तक पहुँचता था। सूरेंद्र हिसाब की अंतहीन कतारों को देखकर ऐसा घबराया कि दफ्तर से बेतहाशा भागा कि घर पर आकर दम लिया। इसके बाद कई माह तक वो दफ्तरों की खाक छानता रहा, मगर अनिच्छा और मूर्खता ने कहीं क़दम न जमने दिया। यहाँ तक कि प्रिंसिपल साहब मायूस हो गए और सभी दफ्तरों के दरवाजे बंद हो गए।

ग़रीब, बेकस रोहिणी अब अपने किए पर पछताती थी, मगर दिल पर जो गुज़रता, खामोशी के साथ झेलती। कभी शिकायत जबान पर न लाती। जब उसने देखा कि सुरेंद्र को समझाने-बुझाने की कोशिश हमेशा कठोर शब्दों का कारण होती है तो क़िस्मत पर ईश्वर को धन्यवाद देकर चुप होकर बैठ रही। क़िस्मत मायूसों की आड़ और बदनसीबों का सहारा है। खर्चों के कारण मुलाजिमों को जवाब देना पड़ा। बेचारी बेजबान औरत दिन-भर लड़कियों को पढ़ाती और गिरिस्ती का सारा काम करती। इन मुसीबतों ने उसकी सूरत को यहाँ तक बिगाड़ दिया था कि बाबू हरिमोहन जब मद्रास से साल-भर के बाद लौटे, तो उसे मुश्किल से पहचान सके। इसके बाद मालूम नहीं उन बदनसीबों पर क्या गुजरी। प्रिंसिपल कॉटन ने आए दिन की हुज्ज़त-ओ-तक़रार से तंग आकर रोहिणी से इस्तीफा ले लिया और खुदा जाने किस-किस देश की खाक छानते हुए आखिर वो काश्मीर पहुँची।

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