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प्रेमचन्द की कहानियाँ 20

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :154
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9781

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बीसवाँ भाग


प्रभा बघौली के राव देवीचंद्र की एकलौती कन्या थी। राव पुराने विचार के रईस थे। कृष्ण की उपासना में लवलीन रहते थे, इसलिए इनके दरबार में दूर-दूर के कलावंत और गवैये आया करते और इनाम एकसम पाते थे। राव साहब को गाने से प्रेम था, वे स्वयं भी इस विद्या में निपुण थे, यद्यपि अब वृद्धावस्था के कारण यह शक्ति निःशेष हो चली थी, पर फिर भी इस विद्या के गूढ़ तत्त्वों के पूर्ण जानकार थे। प्रभा बाल्यकाल ही से इनकी सोहबतों में बैठने लगी। कुछ तो पूर्वजन्म का संस्कार और कुछ रात-दिन गाने ही के चर्चों ने उसे भी इस फन में अनुरक्त कर दिया था। इस समय उसके सौंदर्य की खूब चर्चा थी। रावसाहब ने नौगढ़ के नवयुवक और सुशील राजा हरिश्चंद्र से उसकी शादी तजवीज की थी। उभय पक्ष में तैयारियाँ हो रही थीं। राजा हरिश्चंद्र 'मेयो कॉलेज' अजमेर के विद्यार्थी और नई रोशनी के भक्त थे। उनकी आकांक्षा थी कि, उन्हें एक बार राजकुमारी प्रभा से साक्षात्कार होने और प्रेमालाप करने का अवसर दिया जावे, किंतु राव साहब इस प्रथा को दूषित समझते थे।

प्रभा राजा हरिश्चंद्र के नवीन विचारों के चर्चे सुनकर इस संबंध से बहुत संतुष्ट न थी। पर जब से उसने इस प्रेममय युवा योगी का गाना सुना था, तब से तो वह उसी के ध्यान में डूबी रहती। उमा उसकी सहेली थी। इन दोनों के बीच कोई परदा न था, परंतु इस भेद को प्रभा ने उससे भी गुप्त रखा। उमा उसके स्वभाव से परिचित थी, ताड़ गई, परंतु उसने उपदेश करके इस अग्नि को भड़काना उचित न समझा। उसने सोचा कि थोड़े दिनों में यह अग्नि आपसे आप शांत हो जाएगी। ऐसी लालसाओं का अंत प्राय: इसी तरह हो जाया करता है, किंतु उसका अनुमान गलत सिद्ध हुआ। योगी की वह मोहनी मूर्ति कभी प्रभा की आँखों से न उतरती। उसका मधुर-राग प्रतिक्षण उसके कानों में गूँजा करता। उसी कुंड के किनारे वह सिर झुकाए सारे दिन बैठी रहती। कल्पना में वही मधुर हृदयग्राही राग सुनती और वही योगी की मनोहारिणी मूर्ति देखती। कभी-कभी उसे ऐसा भास होता कि बाहर से वह अलाप आ रहा है। वह चौंक पड़ती और तृष्णा से भरी हुई वाटिका की चहारदीवारी तक जाती और वहाँ से निराश होकर लौट आती। फिर आप ही आप विचार करती - यह मेरी क्या दशा है! मुझे यह क्या हो गया है! मैं हिंदू कन्या हूँ मातापिता जिसे सौंप दें, उसकी दासी बनकर रहना मेरा धर्म है। मुझे तन-मन से उसकी सेवा करनी चाहिए। किसी अन्य पुरुष का ध्यान तक मन में लाना मेरे लिए पाप है। आह! यह कलुषित हृदय लेकर मैं किस मुँह से पति के पास जाऊँगी। इन कानों से क्योंकर प्रणय की बातें सुन सकूँगी जो मेरे लिए व्यंग्य से भी अधिक कर्ण-कटु होंगी। इन पापी नेत्रों से वह प्यारी-प्यारी चितवन कैसे देख सकूँगी जो मेरे लिए वज्र से भी अधिक हृदय-भेदी होगी। इस गले में वे मृदुल प्रेमबाहु पड़ेंगे जो लौहदंड से भी अधिक भारी और कठोर होंगे। प्यारे! तुम मेरे हृदय-मंदिर से निकल जाओ। यह स्थान तुम्हारे योग्य नहीं। मेरा वश होता तो तुम्हें हृदय की सेज पर सुलाती, परंतु मैं धर्म की रस्सियों में बँधी हूँ। इस तरह एक महीना बीत गया। ब्याह के दिन निकट आते-जाते थे और प्रभा का कमल-सा मुख कुम्हलाया जाता था। कभी-कभी विरह-वेदना एवं विचार-विप्लव से व्याकुल होकर उसका चित्त चाहता कि सतीकुंड की गोद में शांति लूँ किंतु रावसाहब इस शोक में जान ही दे देंगे, यह विचार कर वह रुक जाती। सोचती, मैं इनकी जीवन-सर्वस्व हूँ।  

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