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प्रेमचन्द की कहानियाँ 20

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :154
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9781

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बीसवाँ भाग


जैनब पर वज्र-सा गिर पड़ा। पैर बंध गये, वहीं चित्र की भांति खड़ी रह गयी। वज्र ने रक्त को जला दिया, आंसुओं को सुखा दिया, चेतना ही न रही, रोती और बिलखती क्या। एक क्षण के बाद उसने एक बार माथा ठोका, निर्दय तकदीर के सामने सिर झुका दिया। चलने को तैयार हो गयी।

घोर नैराश्य इतना दुखदायी नहीं होता जितना हम समझते हैं। उसमें एक रसहीन शान्ति होती है। जहां सुख की आशा नहीं वहां दुख का कष्ट कहाँ! मदीने में रसूल की बेटी की जितनी इज्जत होनी चाहिए उतनी होती थी। वह पितागृह की स्वामिनी थी। धन था, मान था, गौरव था, धर्म था, प्रेम न था। आंख में सब कुछ था, केवल पुतली न थी। पति के वियोग में रोया करती थी। जिन्दा थी, मगर जिन्दा दरागोर। तीन साल तीन युगों की भांति बीते। घण्टे, दिन और वर्ष साधारण व्यवहारों के लिए है प्रेम के यहां समय का माप कुछ और ही है। उधर अबुलआस द्विगुण उत्साह के साथ धनोपार्जन में लीन हुआ, महीनों घर न आता, हंसना-बोलना सब भूल गया। धन ही उसके जीवन का एक मात्र आधार था; उसके प्रणय-वंचित हृदय को किसी विस्मृतिकारक वस्तु की चाह थी। नैराश्य और चिन्ता बहुधा शराब से शान्त होती है, प्रेम उन्माद से। अबुलआस को धनोन्माद हो गया। धन के आवरण में छिपा हुआ वियोग-दुख था, माया के पर्दे में छिपा हुआ प्रेम-वैराग्य। जाड़ों के दिन थे। नाड़ियों में रुधिर जमा जाता था। अबुलआस मक्का से माल लादकर एक काफिले के साथ चला। रकफों का एक दल भी साथ था। कुरैशियों ने मुसलमानों के कई काफिले लूट लिये थे। अबुलआस को संशय था कि मुसलमानों के कई काफिले लूट लिये थे। अबुलआस को संशय था कि मुसलमानों का आक्रमण होगा, इसलिए उन्होंने मदीने की राह छोड़ एक दूसरा रास्ता अख्तियार किया। पर दुर्दैव, मुसलानों को टोह मिल ही गयी। जैद ने सत्तर चुने हुए आदमियों के साथ काफिले पर धावा कर दिया। धन के भक्त धर्म के सेवकों से क्या बाजी ले जाते। सत्तर ने सात सौ को मार भगाया। कुछ मरे, अधिकांश भागे, कुछ कैद हो गये। मुसलमानों को अतुल धन हाथ लगा। कैदी घाते में मिले। अबुलआस फिर कैद हो गया।

कैदियों के भाग्य-निर्णय के लिए नीति के अनुसार पंचायत चुनी गयी। जैनब को यह खबर मिली तो आशाएं जाग उठीं; आशा मरती नहीं केवल सो जाती है। पिंजरे में बन्द पक्षी की भांति तड़फड़ाने लगी, पर क्या करे, किससे कहे, अबकी तो फदिये का भी कोई ठिकाना न था। या खुदा क्या होगा? पंचों ने अबकी हजरत मुहम्मद ही को अपना प्रधान बनाया। हजरत ने इनकार किया, पर अन्त में उनके आग्रह से विवश हो गये। अबुलआस सिर झुकाये बैठे हुए थे। हजरत ने एक बार उन पर करुणा-सूचक दृष्टि डाली, फिर सिर झुका लिया। पंचायत शुरू हुई। अन्य कैदियों के घरों से मुक्तिधन आ गया था। वे मुक्त किये गये। अबुलआस के घर से मुक्तिधन न आया था। हजरत ने हुक्म दिया- इनका सारा माल और असबाब जब्त कर लिया जाय और ये उस वक्त तक बन्दी रहें जब तक इन्हें कोई छुड़ाने न आये। उनके अंतिम शब्द ये थे: अबुलआस, इसलाम की रणनीति के अनुसार तुम गुलाम हो। तुम्हें बाजार में बेचकर रुपया मुसलमानों में तकसीम होना चाहिए था। पर तुम ईमानदार आदमी हो, इसलिए तुम्हारे साथ इतनी रिआयत की गयी। जैनब दरवाजे के पास आड़ में बैठी हुई थी। हजरत का यह फैसल सुनकर रो पड़ी, तब घर से बाहर निकल आयी और अबुलआस का हाथ पकड़कर बोली- अगर मेरा शौहर गुलाम है तो मैं उसकी लौंडी हूं। हम दोनों साथ बिकेंगे या साथ कैद होंगे।

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