कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 20 प्रेमचन्द की कहानियाँ 20प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बीसवाँ भाग
हजरत- जैनब, मुझे लज्जित मत करो, मैं वही कर रहा हूं जो मेरा कर्त्तव्य है; न्याय पर बैठने वाले मनुष्य को प्रेम और द्वेष दोनों ही से मुक्त होना चाहिए। यद्यपि इस नीति का संस्कार मैंने ही किया है, पर अब मैं उसका स्वामी नहीं, दास हूं। अबुलआस से मुझे जितना प्रेम है यह खुदा के सिवा और कोई नहीं जान सकता। यह हुक्म देते हुए मुझे जितना मानसिक और आत्मिक कष्ट हो रहा है उसका अनुमान हर एक पिता कर सकता है। पर खुदा का रसूल न्याय और नीति को अपने व्यक्तिगत भावों से कलंकित नहीं कर सकता। सहबियों ने हजरत की न्याय-व्याख्या सुनी तो मुग्ध हो गये।
अबूजफर ने अर्ज की- हजरत, आपने अपना फैसला सुना दिया, लेकिन हम सब इस विषय में सहमत हैं कि अबुलआस जैसे प्रतिष्ठित व्यक्ति के यह दण्ड न्यायोचित होते हुए भी अति कठोर है और हम सर्वसम्मति से उसे मुक्त करते हैं और उसका लूटा हुआ धन लौटा देने की आज्ञा मांगते हैं।
अबुलआस हजरत मुहम्मद की न्यायपरायणता पर चकित हो गये। न्याय का इतना ऊंचा आदर्श! मर्यादा का इतना महत्व! आह, नीति पर अपना सन्तान-प्रेम तक न्यौछावर कर दिया! महात्मा, तुम धन्य हो। ऐसे ही ममता-हीन सत्पुरुषों से संसार का कल्याण होता है। ऐसे ही नीतिपालकों के हाथों जातियां बनती हैं, सभ्यताएं परिष्कृत होती हैं। मक्के आकर अबुलआस ने अपना हिसाब-किताब साफ किया, लोगों के माल लौटाये, ऋण चुकाये, और धन-बार त्यागकर हजरत मुहम्मत की सेवा में पहुंच गये। जैनब की मुराद पूरी हुई।
4. नमक का दारोगा
जब नमक का नया विभाग बना और ईश्वरदत्त वस्तु के व्यवहार करने का निषेध हो गया, तो लोग चोरी-छिपे इसका व्यापार करने लगे। अनेक प्रकार के छल प्रपंचों का सूत्रपात हुआ। कोई घूस से काम निकालता था, कोई चालाकी से? अधिकारियों के पौ-बारह थे। पटवारीगिरी का सर्व-सम्मानित पद छोड़-छोड़कर लोग इस विभाग की वरकंदाजी करते थे। इसके दारोगा पद के लिए तो वकीलों का भी जी ललचता था। यह वह समय था, जब अँगरेजी शिक्षा और ईसाई मत को लोग एक ही वस्तु समझते थे। फारसी का प्राबल्य था। प्रेम की कथाएँ और श्रृंगार रस के काव्य पढ़कर फारसीदाँ लोग सर्वोच्च पदों पर नियुक्त हो जाया करते थे। मुन्शी वंशीधर भी जुलेखा की विरह-कथा समाप्त करके मजनू और फरहाद के प्रेम-वृत्तान्त को नल और नील की लड़ाई और अमेरिका के आविष्कार से अधिक महत्व की बातें समझते हुए रोजगार की खोज में निकले। उनके पिता एक अनुभवी पुरुष थे। समझाने लगे- बेटा! घर की दुर्दशा देख रहे हो। ऋण के बोझ से दबे हुए हैं। लड़कियाँ हैं, वह घास-फूस की तरह बढ़ती चली जाती हैं। मैं कगारे पर का वृक्ष हो रहा हूँ, न मालूम कब गिर पड़ूँ। अब तुम्हीं घर के मालिक मुख्तार हो। नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तो पीर का मजार है। निगाह चढ़ावे और चादर पर रखनी चाहिए। ऐसा काम ढूँढना जहाँ कुछ ऊपरी आय हो। मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चाँद है, जो एक दिन दिखाई देता है और फिर घटते-घटते लुप्त हो जाता है। ऊपरी आय बहता हुआ स्रोत्र है, जिससे सदैव प्यास बुझती है।
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