कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 20 प्रेमचन्द की कहानियाँ 20प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बीसवाँ भाग
हाँ, इम्तहान के दिनों में वह हेडमास्टर और दीगर मास्टरों के मुलाजिमों से ज़्यादा मित्रता कर लेता। आम मातापिता उस वक्त तक लड़कों की तरफ़ से मायूस नहीं होते, जब तक वो एक ही दर्जे में बारबार फेल न हो। सुरेंद्र ये नौबत नहीं आने देता था और इसलिए उसके पिता, जो एक बहुत बेफ़िक्र आदमी थे, उससे ज़्यादा पूछताछ न करते। सुरेंद्र में एक बड़ा गुण यह था कि उसकी निगाह इंसान के कमजोर हिस्से पर बहुत जल्द जा पहुँचती थी और इस गुण से उसका बहुत काम निकलता। कोई स्कूल-मास्टर ऐसा न था, जिसके दाग और धब्बे उस पर रोशन न हों। इस गुर ने उसे एंट्रेंस तक निभाहा। यहां तक कि एंट्रेंस का सालाना इम्तहान आया, सुरेंद्र ने इस मौके के लिए बड़े प्रबंध किये थे। सब स्कूल-मास्टर उसके शुभचिंतक बन गए थे। कामयाबी की सब सूरतें उसके अनुकूल थीं। मगर ऐन उस वक्त जबकि उसकी चोर नज़रें दौड़-दौड़कर बरसों का काम लम्हों में पूरा किए देती थीं, एक गरजती हुई आवाज़ उसके कान में आई- ''सुरेंद्र क़लम रख दो। तुम्हें अब लिखने की इजाजत नहीं है।'' सुरेंद्र ने माथा पीट लिया। यह हेडमास्टर साहब थे। इश्तहारी मुजरिम गिरफ्तार हो गया और उसका नाम स्कूल से खारिज कर दिया गया।
सुरेंद्र के लिए अब अतिरिक्त इसके और कोई चारा न था कि कहीं और तालीम का सिलसिला कायम करे, मगर इस हादसे ने उसके दिल पर कोई सुधारपूर्ण असर नहीं पैदा किया। इसने तो मुँहमाँगी मुराद पाई। उसे अब नई दुनिया देखने का, नई दिलचस्पियों के लुत्फ उठाने का, नए दोस्तों की सोहबत का मौक़ा हाथ आया। किसी दूसरी सूरत में ये आरजुएँ मुश्किल से पूरी होतीं। अब वो खुद-ब-खुद उसके सामने हाथ बाँधे हुए खड़ी थीं। वह जिस वक्त मदरसे से चला, उसका चेहरा कुछ तमतमयाया हुआ था, मगर ये गुस्सा बहुत जल्द ठंडा हो गया। खुश होकर कहा- ''ईश्वर की सृष्टि इतनी संकुचित नहीं है।'' लेकिन अब कलकत्ता-यूनिवर्सिटी में दाखिला ग़ैर-मुमकिन था और इलाहाबाद-यूनिवर्सिटी में कोई सूरत न निकली, इसलिए सीधा लाहौर जा पहुँचा और वहाँ एक मदरसे में शरीक़ हो गया। क्रिकेट का जबरदस्त खिलाड़ी, फुटबॉल में सिद्धहस्त, शक्लो-सूरत का जेंटलमैन, दिल खोलकर खर्च करने वाला, बुलंद-हौसला। ऐसा विद्यार्थी जहाँ जाए, उसे दोस्तों की कमी न रहेगी। लाहौर में बहुत जल्द दोस्तों की काफ़ी तादाद हो गई और फिर वही चहचहे और कहकहे उड़ने लगे, मगर जरा सावधानी के साथ, शर्म का पर्दा रखे हुए। सुबह को बागों की सैर, शाम को क्रिकेट और फुटबॉल। रात को शराब के दौर, फिर वेश्या-नृत्यों में तल्लीनता। कभी-कभी इन्हीं धंधों में रात गुजर जातीं, मगर ये सब आज़ादियाँ और मस्तियाँ चंद विश्वासी मित्रों तक सीमित थीं, वरना आमतौर पर ये हज़रत बहुत दैवीय गुण-सम्पन्न, सँभलकर चलने वाले, सहनशील एवं शांतिप्रिय मशहूर थे। यहाँ तक कि कॉलेज के प्रिंसिपल मि. काटन, जबकि लड़कियों के मदरसे का मुआइना करने जाते तो कभी-कभी सुरेंद्र को अपनी मदद के लिए साथ ले जाते। मुबारक होता वो दिन जब बाँका, सजीला सुरेंद्र लड़कियों के मदरसे में दाखिल होता, हेड मिस्ट्रेस मिस गुप्ता का मुस्कराकर उससे हाथ मिलाना, आह! उन नर्म हथेलियों का उसके हाथ में आना आँखों में नशे के एक तूफान का आना था। उसका दिल उमंग से फूल उठता और दिल की प्रसन्नता और लिखावट उसकी मनोरम आकृति का रंग और भी चोखा कर देती। फिर ये एक कुदरती बात थी कि मिस गुप्ता को उसकी होने वाली बीवी पर रश्क आता।
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