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प्रेमचन्द की कहानियाँ 20

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :154
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9781

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का बीसवाँ भाग


एक दिन सुरेंद्र कॉलेज से आ रहा था कि कलकत्ता के एक पुराने दोस्त से आँखें चार हुईं। ये बाबू हरिमोहन थे। उन्हें देखते ही सुरेंद्र का खून सर्द हो गया। हरिमोहन उसकी अशिष्टताओं, उजड्डपन के करिश्में अपनी आँखों से देख चुके थे। बहुत घबराया, मगर तपाक से बढ़कर सलाम किया और खैरो-आफ़ियत पूछी। हरिमोहन ने उसे सिर से पैर तक देखा। खाक़ा वही था मगर रंग नया। कुछ इधर-उधर की बातें हुईं। जब जुदा होने लगे तो सुरेंद्र ने बहुत मिन्नत-भरे लहजे में कहा- ''भाई साहब, जिसे खुदा ने खराब बनाया है, वह कभी अच्छा नहीं हो सकता। मैंने बहुत कोशिश की कि नेकबख्त बन जाऊँ, मगर ना बन सका। हाँ, नेकबख्ती की शोहरत हासिल कर ली। यहाँ सिवा आपके कोई दूसरा मेरे हालत से वाक़िफ़ नहीं है। इसलिए मुझ गरीब पर नज़रे-इनायत रखिएगा। आप चाहें तो बात-की-बात में मेरा रंग फीका कर सकते हैं। मैं बिलकुल आपके बस में हूँ मगर मुझे आप पर भरोसा है। आपको मैं हमेशा अपना बुजुर्ग और खैर-ख्वाह समझता रहा हूँ।

सुरेंद्र की बारीक निगाहें हरिमोहन के कमजोर हिस्से पर जा पहुँचीं। उनके चेहरे पर सहानुभूतिपूर्ण मुस्कराहट नज़र आई। बोले- ''मुझे तुम हमेशा अपना दोस्त समझना।''

सुरेंद्र ने लाहौर में एक बड़ा काम पूरा किया। उसने एक 'यंगमैन यूनियन' क़ायम कर ली और खुद उसका सेक्रेटरी बन बैठा। इस यूनियन के उद्देश्य बहुत सुन्दर थे, नौजवानों के तहज़ीब, इल्मी और अमली तरक्की, पारस्परिक एकता और मैत्री की प्रचार-प्रसार वगैरा। मेम्बरों को कुछ माहवारी चंदा देना पड़ता और शपथ के अनुसार इक़रार करना पड़ता कि मैं इस यूनियन के किसी मेम्बर को किसी आफ़त में देखूँगा तो हर मुमकिन सूरत में उसकी मदद करूँगा। चंदा की रकम से चंद अखबार आते और जो कुछ बचता वो भलाई के कामों में खर्च होता। इस काम में सुरेंद्र को शानदार कामयाबी हासिल हुई। एक माह के अंदर यूनियन में 5० से ज़्यादा मेम्बर हो गए। पच्चीस रुपए माहवार चंदा आने लगा। पाँच यतीमों और कई बेवाओं की परवरिश होने लगी। इस कामयाबी का सेहरा मिस्टर सेक्रेटरी के सिर था, जिसकी शोहरत दिन दूनी और रात चौगुनी हुई जाती थी। प्रिंसिपल कॉटन उसे पहले ही से मानते थे, अब भक्त हो गए। शहर में भी यूनियन का चर्चा होने लगा, मगर ये शानदार नाम का यूनियन केवल शोहदों की एक जमात के और कुछ नहीं था। सभी कॉलेजों के जितने लंपट लोग, शोहदे, आवारामिज़ाज, अशिष्ट शीलस्वभाव, दुराचारी, विद्यार्थीगण ये सब इसके मेम्बर थे। यूनियन का कमरा उनकी मनोरंजन का अखाड़ा था; यहाँ वो गाते-बजाते और यहाँ ही मजलिसें होतीं, क्योंकि संगीत-कला का प्रचार-प्रसार भी यूनियन के प्रोग्राम में शामिल थी। यूनियन के सारे मेम्बर सुरेंद्र को अपना रहबर और पेशवा मानते थे। उसने हरेक के दिल में यह बात जमा दी थी अगर तुम बिला मेहनत और कष्ट के इम्तहान पास करना चाहते हो तो सिवाय इसके कोई इलाज नहीं कि यूनियन के सदस्य बन जाओ। सुरेंद्र इम्तहानी पर्चों की जासूसी में अत्यधिक कुशल था और यही उसके असर और दबाव का राज था। कॉलेज में सुरेंद्र की वही इज्जत थी जो किसी प्रोफ़ेसर की। शहर में उसके आगे अच्छे-अच्छों के सिर झुक जाते, चूँकि कई बार उसे इस बात का सबूत देने का मौका मिल चुका था कि इतिफ़ाक़ एक जबरदस्त ताक़त है।

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