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प्रेमचन्द की कहानियाँ 23

प्रेमचंद

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :137
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9784

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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का तेइसवाँ भाग


काटन- कुछ परवाह नहीं, हम अन्दर जाकर देखेगा।

कुंअर साहब दरवाजे से चिमटे हुए काटन साहब की बातें सुन रहे थे। नीचे की सांस नीचे थी, ऊपर की ऊपर। काटन साहब को घोड़े से उतरकर दरवाजे की तरफ आते देखा, तो गिरते-पड़ते दौड़े और सुशीला से बोले- दुष्ट मुझे देखने घर में आ रहा है। मैं चारपाई पर लेट जाता हूं, चटपट लिहाफ निकलवाओ और मुझे ओढ़ा दो। दस-पांच शीशियां लाकर इस गोलमेज पर रखवा दो।

इतने में वाजिदअली ने द्वार खटखटाकर कहा- महरी, दरवाजा खोल दो, साहब बहादुर कुंअर साहब को देखना चाहते हैं।

सुशीला ने लिहाफ मांगा, पर गर्मी के दिन थे, जोड़े के कपड़े सन्दूकों में बन्द पड़े थे। चटपट सन्दूक खोलकर दो-तीन मोटे-मोटे लिहाफ लाकर कुंअर साहब को ओढा दिये। फिर आलमारी से कई शीशियां और कई बोतल निकालकर मेज पर चुन दिये और महरी से कहा- जाकर किवाड़ खोल दो, मैं ऊपर चली जाती हूं।

काटन साहब ज्यों ही कमरे में पहुंचे, कुंअर साहब ने लिहाफ से मुंह निकाल लिया और कराहते हुए बोले- बड़ा कष्ट है हुजूर। सारा शरीर फुंका जाता है।

काटन- आप दोपहर तक तो अच्छा था, खां साहब हमसे कहता था कि आप तैयार हैं, कहां दरद है?

कुंअर- हुजूर पेट में बहुत दर्द है। बस, यही मालूम होता है कि दम निकल जायेगा।

काटन- हम जाकर सिविल सर्जन को भेज देता है। वह पेट का दर्द अभी अच्छा कर देगा। आप घबरायें नहीं, सिविल सर्जन हमारा दोस्त है।

काटन चला गया तो कुंअर साहब फिर बाहर आ बैठे। रोजा बख्शाने गये थे, नमाज गले पड़ी। अब यह फिक्र पैदा हुई कि सिविल सर्जन को कैसे टाला जाय।

कुंअर- भई, यह तो नई बला गले पड़ी।

वाजिद- कोई जाकर खां साहब को बुला लाओ। कहना, अभी चलिए ऐसा न हो कि वह देर करें और सिविल सर्जन यहां सिर पर सवार हो जाय।

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