कहानी संग्रह >> प्रेमचन्द की कहानियाँ 41 प्रेमचन्द की कहानियाँ 41प्रेमचंद
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प्रेमचन्द की सदाबहार कहानियाँ का इकतालीसवाँ भाग
मसऊद स्तम्भित रह गया। ये तेगा मैंने अपने बाप से विरसे में पाया है और यह मेरे पिछले बड़प्पन कि आखिरी यादगार है। यह मेरी बॉँहों की ताकत और मेरा सहयोगी और मददगार है। इसके साथ कैसी स्मृतियां जुड़ी हुई हैं, क्या मैं जीते जी इसे अपने पहलू से अलग कर दूँ? अगर मुझ पर कोई आदमी लड़ाई के मैदान से कदम हटाने का इलजाम लगा सकता, अगर कोई शख्त इस तेगे का इस्तेमाल मेरे मुकाबिले में ज्यादा कारगुजारी के साथ कर सकता, अगर मेरी बॉँहों में तेग पकड़ने की ताकत न होती तो खुदा की कसम, मैं खुद ही तेगा कमर से खोलकर रख देता। मगर खुदा का शुक्र है कि मैं इन इल्जामों से बरी हूँ। फिर क्यों मैं इसे हाथ से जाने दूँ? क्या इसलिए कि मेरी बुराई चाहनेवाले कुछ थोड़े-से डाहियों ने सरदार नमकखोर का मन मेरी तरफ से फेर दिया है? ऐसा नहीं हो सकता।
मगर फिर उसे ख्याल आया, मेरी सरकशी पर सरदार और भी गुस्सा हो जायेंगे और यकीनन मुझसे तलवार शमशीर के जोर से छीन ली जायेगी। ऐसी हालत में मेरे ऊपर जान छिड़कनेवाले सिपाही कब अपने को काबू में रख सकेंगे। जरूर आपस में खून की नदियॉँ बहेंगी और भाई-भाई का सिर काटेगा। खुदा न करे कि मेरे सबब से यह दर्दनाक मार-काट हो। यह सोचकर उसने चुपके से शमशीर सरदार नमकखोर के बगल में रख दी और खुद सर नीचा किये जब्त की इन्तहाई कुवत से गुस्से को दबाता हुआ खेमे से बाहर निकल आया।
मसऊद पर सारी फौज गर्व करती थी और उस पर जानें वारने के लिए हथेली में लिये रहती थी। जिस वक्त उसने तलवार खोली है, दो हजार सूरमा सिपाही मियान पर हाथ रक्खे और शोले बरसाती हुई आँखों से ताकते कनौतियॉँ बदल रहे थे। मसऊद के एक जरा-से इशारे की देर थी और दम के दम में लाशों के ढेर लग जाते। मगर मसऊद बहादुरी ही में बेजोड़ न था, जब्त और धीरज में भी उसका जवाब न था। उसने यह जिल्लत और बदनामी सब गवारा की, तलवार देना गवारा किया, बगावत का इलजाम लेना गवारा किया और अपने साथियों के सामने सर झुकाना गवारा किया मगर यह गवारा न किया कि उसके कारण फौज में बगावत और हुक्म न मानने का ख्याल पैदा हो। और ऐसे नाजुक वक्त में जबकि कितने ही दिलेर, जिन्होंने लड़ाई की आजमाइश में अपनी बहादुरी का सबूत दिया था, जब्त हाथ से खो बैठते और गुस्से की हालत में एक-दूसरे के गले काटते, खामोश रहा और उसके पैर नहीं डगमगाये। उसने बहादुरी का सबूत दिया खामोश रहा और उसके पैर नहीं डगमगाये। उसकी परेशानी पर जरा भी बल न आया, उसके तेवर जरा भी न बदले। उसने खून बरसाती हुई आँखों से दोस्तों को अलविदा कहा और हसरत भरा दिल लिये उठा और एक गुफा में छिप बैठा और जब सूरज डूबने पर वहॉँ से उठा तो उसके दिल ने फैसला कर लिया था कि बदनामी का दाग माथे से मिटाऊँगा और डाहियों को शर्मिन्दगी के गड्ढे में गिराऊँगा।
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