भाषा एवं साहित्य >> हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शनमोहनदेव-धर्मपाल
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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन-वि0सं0 700 से 2000 तक (सन् 643 से 1943 तक)
प्रसाद जी का नाट्य-साहित्य
प्रायश्चित्त- पृथ्वीराज और जयचंद के पारस्परिक विद्वेष की कथा को कल्पना के पुट से चमत्कृत कर अङ्कित किया गया है। इसमें नान्दी, सूत्रधार आदि नहीं हैं और न 'सज्जन' के समान पद्यात्मक संवाद ही प्रयुक्त हुए हैं। इसलिए इसे नवीन शैली का नाटक कह सकते हैं।
कल्याणी-परिणय- इसमें चन्द्रगुप्त और सैल्यूकस के युद्ध के समय की घटना अंकित हुई है। इसमें यत्र-तत्र गीतों का समावेश भी है। साथ ही नान्दी और सूत्रधार भी यथापूर्व विद्यमान हैं। इस प्रकार इसमें नवीन और प्राचीन शैलियों का समन्वय कर दिया गया है। 'कल्याणी- परिणय' ही आगे चलकर 'चन्द्रगुप्त' जैसे महान् नाटक के रूप में परिणत हो गया।
करुणालय- यह गीति-नाट्य है, जो अतुकान्त मात्रिक छन्दों में लिखा गया है। इसमें हरिश्चन्द्र, विश्वामित्र और उनके पुत्र शुनःशेप आदि पौराणिक चरित्रों की अवतारणा हुई है।
इन चारों नाटकों में प्रसाद जी की कला का आरम्भिक रूप ही है। आगे चलकर इस कला ने प्रौढ़ और परिमार्जित रूप में दर्शन दिये। इस समय के 'विशाख', 'जनमेजय का नाग-यज्ञ', 'अजातशत्रु', 'चन्द्रगुप्त', 'स्कन्दगुप्त' और 'ध्रुव-स्वामिनी' आदि सभी नाटक अत्यन्त प्रौढ़ हैं।
विशाख- इस नाटक में 'राज-तरंगिणी' के आधार पर काश्मीर-नरेश नरदेव के समय की घटना अंकित की गई है।
जनमेजय का नाग-यज्ञ- यह नाटक कलियुग के आरम्भ-काल की पौराणिक घटना पर आधारित है। इसमें आर्य और नाग-जाति के संघर्ष की कथा कही गई है। नाटक में कलात्मकता की अपेक्षा चरित्र-चित्रण को ही प्रधानता दी गई है। संघर्षमय वातावरण की सृष्टि करने की कवि की अदभुत क्षमता इस नाटक से प्रकट होती है।
अजातशत्रु- इस नाटक में मगध-सम्राट् बिम्बसार के पुत्र अजातशत्रु को केन्द्र मानकर महात्मा बुद्ध के समय का राजनैतिक घटना-चक्र चित्रित किया गया है 1
चन्द्रगुप्त- इसमें मौर्य-सम्राट् चन्द्रगुप्त के समय का इतिहास उज्जवलतम रूप में अंकित हुआ है। यूँ तो प्रसाद जी ने 'अजातशत्रु' 'स्कन्दगुप्त' आदि सभी ऐतिहासिक नाटकों के आरम्भिक प्राक्कथनों में अपनी ऐतिहासिक गवेषणाओं का परिचय दिया है, पर 'चन्द्रगुप्त' नाटक के प्रारम्भ में भूमिका लिखकर उन्होंने जिस मौलिक सूझ-बूझ का परिचय दिया, उसे देखकर बड़े-बड़े ऐतिहासिक पुरातत्व-वेत्ताओं को भी प्रसाद जी की ऐतिहासिक प्रतिभा का लोहा मानना पड़ गया। लेखक ने दृढ़तर प्रमाणों से सिद्ध कर दिया कि सिकन्दर नन्द की विशाल सेना का सामना न कर सकने के कारण व्यास नदी से वापिस लौट गया और वह वीर मालव-जाति से युद्ध में पराजित व घायल हो गया था।
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