भाषा एवं साहित्य >> हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शनमोहनदेव-धर्मपाल
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हिन्दी साहित्य का दिग्दर्शन-वि0सं0 700 से 2000 तक (सन् 643 से 1943 तक)
'प्रसाद' जी का कथा-साहित्य
अब उनके कथा-साहित्य, उपन्यास व कहानियों पर भी विचार करना उपयुक्त होगा। उनके तीनों उपन्यास--, १) कंकाल', (२) तितली, (३) इरावती-हिन्दी- उपन्यास-साहित्य में अपना विशेष स्थान रखते हैं।
कंकाल- इसमें समाज के दैनिक जीवन के ऐसे सैकड़ों चित्र सफलतापूर्वक अंकित किये गये है, जिनके द्वारा समाज के ठेकेदारों की पोलें खोलकर उन्हें वास्तविक रूप में जनता के समक्ष उपस्थित कर दिया गया है।
तितली- इसमें ग्रामीणों की दुर्दशा का चित्र अंकित करते हुए इससे मुक्ति के उपायों पर भी प्रकाश डाला गया है। 'कंकाल' की अपेक्षा इसका कथानक भी सुगठित है और घटनाओं का विस्तार भी अधिक नहीं। यहाँ भी 'कंकाल' के समान दो कथानक समानान्तर रूप में चल रहे है, जो एक ही सूत्र में बँधे हुए है।
इरावती- यह प्रसाद जी का तीसरा और अन्तिम अपूर्ण उपन्यास है। इसकी कथावस्तु ऐतिहासिक है। इसमें शुंग-वंश से सम्बन्ध रखने वाली कथा है। वास्तव में भारतीय इतिहास में शुंग-राज्य-काल का समय बड़ा महत्वपूर्ण है। पुष्यमित्र और अग्निमित्र आदि सम्राटों ने आर्य-संस्कति के संरक्षण में महत्वपूर्ण योग दिया था। प्रसाद जी की आर्य-संस्कति के प्रति अटल आस्था थी। पुष्यमित्र ने वास्तव में पतनो- न्मुख बौद्ध धर्म के विरुद्ध, वैदिक धर्म का झंडा फिर से लहरा कर स्तुत्य कार्य किया था। उस समय भगवान् महाकाल शिवशंकर की उपासना का प्रचार जोरों पर था। इरावती ने शैव सिद्धान्त के आनन्दवाद को ही मुख्यत: प्रश्रय दिया है। इसके चरित्रों से ज्ञान होता है कि प्रसाद जी ऐतिहासिक वातावरण, कथानक और भावचित्रण की ओर ही अधिक झुके हुए थे।
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