धर्म एवं दर्शन >> काम कामरामकिंकर जी महाराज
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मानसिक विकार - काम पर महाराज जी के प्रवचन
दीपशिखा में प्रकाश भी है और दाहकता (जलाने की क्षमता) भी। बुद्धिमान् व्यक्ति तो वह है कि जो 'दाहकता' को छोड़ दे और 'प्रकाश' को ग्रहण कर उसका सदुपयोग करे। रावण ने अपने सिर तो काटकर चढ़ा दिये और इस रूप में प्रसिद्ध भी हो गया, पर क्या सिर काटकर चढ़ा देना ही सच्ची पूजा है?
अंगदजी ने रावण पर व्यंग्य किया- ''रावण! यदि तुम्हारे द्वारा अर्पित फूल शंकरजी को पसंद आये होते, तो वे उन्हें रख न लेते? पर उन्होंने तो ज्यों के त्यों लौटा दिये! उन्हें पसंद नहीं आये इसीलिए तो तुम्हारे सब के सब सिर फिर से निकल आये!'' अंगदजी इसके द्वारा बहुत सुंदर संकेत देते हैं। मानो शंकरजी सोचते हैं - 'यह बड़ा नासमझ है, मेरी पूजा में जो वस्तु चढ़ानी चाहिये वह तो चढ़ाता नहीं है! चढ़ाना चाहिये था अभिमान को काटकर, पर यह मूर्ख सिर काट कर चढ़ा रहा है!'' हम देखते हैं कि भगवान् शंकर की प्रसन्नता और अप्रसन्नता के साथ यह सिर-काटना अन्य प्रसंगों में भी जुडा हुआ है। वे अप्रसन्न होते हैं तो सिर काट देते हैं और प्रसन्न होने पर सिर बदल देते हैं। भगवान् शंकर ने दो व्यक्तियों का सिर काटा था, एक तो अपने बेटे गणेशजी का तथा दूसरा, अपने श्वसुर दक्ष प्रजापति का, पर सिर काटने के बाद उन्होंने दक्ष के पुराने सिर के बदले बकरे का सिर जोड़ दिया था, और गणेशजी के सिर पर हाथी का सिर जोड़ दिया था। इस प्रकार एक पर 'अज' का सिर और दूसरे पर 'गज' का सिर जोड़ दिया। इसका मानो संकेत यह है कि दक्ष बड़े योग्य हैं, चतुर हैं और बुद्धिमान् हैं। पर उन्हें अपनी योग्यता का बड़ा अभिमान हो गया था। अत: उस अभिमान को नष्ट करने के लिये उनका सिर भगवान् शिव ने काट दिया और उसके स्थान पर पशु का सिर लगा दिया था। क्योंकि पशु में अभिमान नहीं होता और सचमुच सिर लगते ही दक्ष भगवान् शंकर की स्तुति करने लगा। अभिमान के नष्ट हो जाने से उसका विरोध बैरभाव भी समाप्त हो गया। आज भी प्राचीन पद्धति से पूजा करने वाले लोग पूजा के अंत में बकरे की बोली की नकल करते हैं।
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