धर्म एवं दर्शन >> काम कामरामकिंकर जी महाराज
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मानसिक विकार - काम पर महाराज जी के प्रवचन
मान लीजिये! कोई रोगी किसी ऐसे डाक्टर के पास अपनी चिकित्सा के लिये जाय जो सत्संगी भी हो। यदि डाक्टर रोगी की बात सुनने के बाद, रोगी को दवा देने के स्थान पर, कहने लगे कि 'शरीर तो नाशवान् है, एक दिन तो मरना ही है, इसलिए छोड़ो दवा का चक्कर!' तो इसे सुनकर रोगी क्या प्रसन्न हो जायगा कि कितने बड़े सत्संगी डाक्टर हैं? वह तो सिर पीट लेगा कि कैसा मूर्ख डाक्टर है! क्योंकि उस समय तो उसे रोग मिटाने के लिये दवा चाहिये, तत्त्वज्ञान नहीं। तत्त्वज्ञान का भी महत्व है पर शरीर को स्वस्थ्य रखना भी आवश्यक है, क्योंकि -
गोस्वामीजी समय और स्थान के अनुरूप ही वर्णन करते हैं। भगवान् शंकर तो रामकथा के आचार्य हैं, रामकथा-रस से ओतप्रोत हैं। इसलिए कुछ काल व्यतीत हो जाने पर एक दिन जब भगवान् शंकर वटवृक्ष की छाया में आसीन होते हैं, तब उस समय श्रृंगार रस के स्थान पर शांत रस आता है। भगवान् शंकर को सर्वथा 'काम' का विरोधी कहना तो उचित नहीं होगा, क्योंकि शान्तरस के आने से पूर्व कैलास में श्रृंगार रस ही तो विद्यमान था और श्रृंगार रस का परिपाक तो बिना काम के संभव ही नहीं है। पर इसके साथ-साथ वह बात भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है कि प्रत्येक वस्तु या रस की भी एक सीमा होगी, अवधि होगी। कोई भी रस चाहे कितना भी सुखद प्रतीत क्यों न हो, व्यक्ति यदि उसमें निरंतर संलग्न रहने की चेष्टा करेगा तो वह जीवन में अपूर्ण रह जायगा और एकरसता के कारण वह रस भी अपना आकर्षण खोता चला जायगा। इसलिए एक सीमा के बाद, एक अवधि के बाद कैलास पर्वत पर दृश्य बदल गया। गोस्वामीजी कहते हैं कि-
धरे सरीरु सांतरसु जैसे।।
पारबती भल अवसर जानी।
गई संभु पहिं मातु भवानी।।
कथा जो सकल सोक हितकारी।
सोइ पूछन चढ़ सैल कुमारी।। 1/106
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