धर्म एवं दर्शन >> काम कामरामकिंकर जी महाराज
|
0 |
मानसिक विकार - काम पर महाराज जी के प्रवचन
भक्तों की भाषा में यदि कहें तो वे भी प्रभु-प्रेम की तीव्रता के मापदण्ड के रूप में काम-सुख का ही दृष्टान्त देते हैं। 'मानस' में गोस्वामीजी भगवान् राम से प्रेम की याचना करते हैं। भगवान् राम गोस्वामीजी से पूछते हैं कि 'तुलसीदास! तुमने मेरे चरित्र का वर्णन किया है, बोलो! क्या चाहते हो?''
- महाराज! प्रेम चाहता हूँ !''
भरत जी की तरह!
- महाराज! मैं और श्रीभरत?
- लक्ष्मणजी या हनुमान् जी की तरह!
- प्रभु! भला मैं ऐसा दुस्साहस कर सकता हूँ?
- तो फिर तुम कैसा प्रेम चाहते हो?
तुलसीदासजी कहते हैं – ''प्रभु!
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम।। 7/130
जैसे कामी का नारी के प्रति आकर्षण होता है, प्रीति होती है और जैसे लोभी को धन से प्रेम होता है, आप मुझे उसी भाँति प्रिय लगें। इस तरह आनंद और सुख की चरम स्थिति की अनुभूति को काम से जोड़े बिना अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता। फिर यह प्रश्न उठता है कि 'काम' की निन्दा क्यों की जाती है? गोस्वामीजी काम के साथ जुड़ी हुई समस्याओं का भी संकेत रामचरितमानस में करते हैं जिनके कारण वह निंदनीय बन जाता है। काम के ये दोनों ही पक्ष भगवान् शंकर के प्रसंग में दिखायी देते हैं।
|