धर्म एवं दर्शन >> काम कामरामकिंकर जी महाराज
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मानसिक विकार - काम पर महाराज जी के प्रवचन
रामायण में दो परोपकारी हैं - 'कामदेव' और 'गीध'। भगवान् ने इनमें से एक को बेटा बनाया और तथा दूसरे को पिता। गीधराज जटायुजी ने श्रीसीताजी की रक्षा में अपने प्राण दे दिये। भगवान् राम ने उन्हें पिता का स्थान प्रदान करते हुए, अपने हाथों उनकी अंतिम क्रिया की और काम को प्रभु ने अपने कृष्ण अवतार-काल में पुत्र के रूप में स्वीकार किया। इस तरह हम देखते हैं कि प्रभु परोपकार की वृत्ति का अत्यधिक सम्मान करते हैं और परहित करनेवाला उन्हें सर्वाधिक प्रिय है।
कामदेव परहित का उद्देश्य लेकर चला और यदि केवल शंकरजी के हृदय में ही काम उत्पन्न करने की चेष्टा करता है तो यह उचित होता, क्योंकि यही तो अभीष्ट था। किन्तु वह ऐसा नहीं करता और तब 'काम' की कमी के रूप में उसका जो दूसरा पक्ष है, वह सामने आ जाता है काम का निंदनीय दोष यह है कि वह 'मर्यादाओं को, सीमाओं को स्वीकार नहीं करता। बंबई में, मैंने देखा कि सड़कों पर बीचो-बीच, विभाजन के लिये, लोहे की छड़ें लगा दी गयी हैं कि जिससे लोग अपनी निर्धारित सीमा के भीतर ही सड़क के दोनों ओर आ-जा सकें। पहले, ये लोहे के विभाजक नहीं थे, मात्र सफेद पट्टियाँ ही सड़क पर बीचों-बीच खिंची रहती थीं। पर ऐसा लगता है कि 'रेखा' को लाँघने का स्वभाव अब यहाँ भी लोगों में आ गया है। इसीलिए लाचार होकर उन सफेद रेखाओं के स्थान पर लोहे की छड़ें लगा देनी पड़ी हैं, जिससे लोग अपनी-अपनी सीमाओं में रहें और यातायात में होने वाली दुर्घटनाओं में कमी हो। इसका अर्थ है कि काम अपनी सीमा में, मर्यादा में रहकर बहुत आनंद दे सकता है पर सीमा में रहना उसके स्वभाव में नहीं है।
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