धर्म एवं दर्शन >> काम कामरामकिंकर जी महाराज
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मानसिक विकार - काम पर महाराज जी के प्रवचन
'काम' भगवान् शंकर के पास जाने लगा तो उसने सोचा-अब मरना तो है ही, क्यों न लोगों को दिखा दूँ कि मैं क्या हूँ? यही काम का दोष है। उसका यह कार्य न तो उचित है और न ही इसकी कोई आवश्यकता ही है। यह तो कुछ उसी तरह की बात हो गयी कि जैसे एक शल्य-चिकित्सक छुरी लेकर आपरेशन करने जाय, और सोचने लगे कि जब छुरी हाथ में आ ही गयी है तो फिर थोड़ा-सा ही क्यों काटूँ? जरा ज्यादा ही काट देता हूँ। पर कुशल डाक्टर की विशेषता यही है कि जितना आवश्यक हो वह उतना ही काटे। यही छुरी का समुचित उपयोग और डाक्टर का प्रशंसनीय कार्य माना जायेगा।
एक बार हत्या की एक विचित्र-सी घटना पढ़ने को मिली। एक व्यक्ति की सोते समय हत्या कर दी गयी। हत्यारा पकड़ लिया गया। पता चला कि उन दोनों में न तो कोई पूर्व परिचय था और न ही कोई दुश्मनी थी। आश्चर्य हुआ कि फिर यह हत्या क्यों हुई? उस मुकदमे में प्रसिद्ध वकील श्री कैलाशनाथजी काटजू नियुक्त थे, उन्होंने अभियुक्त से जब अकेले में पूछा कि क्या उस व्यक्ति से तुम्हारी कोई दुश्मनी थी? तो उसने यही कहा कि मैं तो उसे जानता भी नहीं था ''तो तुमने उसका सिर क्यों काट दिया?'' उसने कहा कि मेरे पास जो फरसा था उसमें जंग लग गयी थी और मैं उसे लेकर उस पर शान चढ़वाने (धार पैनी करवाने) बाजार गया था। शान चढ़ने के बाद फरसा खूब चमकने लगा। बाजार से लौटते समय इस आदमी को सोते देखकर मेरे मन में आया कि जरा इस पर फरसा चला कर देखूँ कि इसकी धार कितनी पैनी है? मैंने इसीलिए उस पर फरसा चला दिया।' काम की वृत्ति भी कुछ इसी प्रकार की दिखायी देती है। गोस्वामीजी विस्तार से इसका वर्णन करते हुए लिखते हैं कि-
निज बस कीन्ह सकल संसारा।।
कोपेउ जवहिं बारिचर केतू।
छन महुँ मिटे सकल श्रुति सेतू।। 1/83/5,6
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