धर्म एवं दर्शन >> क्रोध क्रोधरामकिंकर जी महाराज
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मानसिक विकार - क्रोध पर महाराज जी के प्रवचन
प्रतापभानु स्वभाव से तो अपराधी नहीं था। इसलिए उससे अपराध होता हुआ दिखायी देने पर, उचित तो यही होता कि विप्र-समाज पहले उससे प्रश्न करता कि 'ऐसा क्यों हुआ?' और उसके बाद उचित पद्धति से ही उसके लिये दण्ड की व्यवस्था की जाती। आज भी समाज में एक व्यक्ति जब किसी दूसरे व्यक्ति के प्रति कोई अपराध करता है, अन्याय करता है, तो प्रभावित व्यक्ति के मित्र या सम्बन्धी उस अन्याय का दण्ड स्वयं न देकर न्यायालय का आश्रय लेते हैं। यदि क्रोध के कारण वे बदला लेने के लिये स्वयं दण्ड देने की भूल करते हैं तो वे भी न्यायालय के द्वारा दण्ड के पात्र माने जाते हैं। इस प्रकार दण्ड का अधिकार तो न्यायालय को ही है, व्यक्ति या उसके परिवार के पास नहीं है। ब्राह्मणों को भी दण्ड देने का अधिकार नहीं था, इसलिये फिर से आकाशवाणी हुई और भगवान् ने इसके माध्यम से कहा-
आप लोगों ने विचारपूर्वक शाप नहीं दिया। मानो इसका संकेत यह था कि मैंने जो आदेश आपको दिया था, उसका पालन करना चाहिये था और इसके अपराध का दण्ड मेरे ऊपर छोड़ देना चाहिये था। पर न्याय का भार मेरे ऊपर न छोड़कर आप लोगों ने ही इसे दण्ड देने का निर्णय ले लिया! यह तो ठीक नहीं हुआ। और सचमुच, यह कार्य स्वयं ब्राह्मणों के लिये भी बड़ा दुःखदायी सिद्ध हुआ।
प्रतापभानु दूसरे जन्म में रावण बना और उसके परिवार के सब लोग भी राक्षस बन गये। इनके कारण सारे संसार के लोगों को कष्ट उठाना पड़ा और सबसे ज्यादा कष्ट तो ब्राह्मणों को ही भोगना पड़ा। इससे यह बात तो स्पष्ट हो जाती है कि क्रोध का वह अतिरेक अच्छा नहीं है, जो दूसरे व्यक्ति को राक्षस बना दे, क्योंकि ऐसी स्थिति में राक्षस बनने पर वह तो क्रोध करने वाले को ही खाने की चेष्टा करेगा। अपने क्रोध से किसी व्यक्ति को और अधिक बुरा बना देना, यह तो क्रोध का सदुपयोग नहीं है। हम देखते हैं कि इस जन्म में रावण का जितना भी व्यवहार था, वह उसके पुनर्जन्म के जीवन की प्रतिक्रिया ही थी। वह सोचता है कि मैंने इनके लिये भोजन की व्यवस्था की थी और इसके द्वारा इन्हें प्रसन्न करना चाहता था। इस बीच जो षड्यन्त्र रचा गया उसका मुझे ज्ञान भी नहीं था, फिर भी मुझे इन लोगों ने शाप दे दिया इसलिये मैं अब इन लोगों को ही खाऊँगा। क्रोध की प्रतिक्रिया में ऐसी वृत्ति व्यक्ति और समाज में उत्पन्न हो जाती है। अत: इसका अर्थ यही है कि क्रोध का विवेक-संगत होना परम आवश्यक है। न्यायाधीश जब अपराधी को दण्ड देता है तो वह क्रोध में आकर निर्णय नहीं देता है। न्याय-व्यवस्था में ऐसा विधान भी है कि यदि न्यायाधीश के व्यवहार से लगे कि वह अभियुक्त से पहले से ही नाराज है, तो अभियुक्त की प्रार्थना पर उसका मुकदमा किसी दूसरे न्यायाधीश के न्यायालय में भेजा जा सकता है। इसलिये हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि हमारा क्रोध हमारे लिये ही महँगा सिद्ध न हो। क्रोध के दो स्वरूप हमारे सामने आते हैं। भगवान् शंकर के क्रोध के मूल में विवेक है जिसका परिणाम यह होता है कि भुशुण्डिजी अंत में भक्त-शिरोमणि बन जाते हैं। ब्राह्मणों के क्रोध के मूल में विवेक का सर्वथा अभाव है, इसलिए उनके शाप के परिणाम में प्रतापभानु सपरिवार राक्षस बनकर संसार को पीड़ित करता है। इससे तो यही निष्कर्ष निकलता है कि अपराध तो बुरा है ही पर अविचारपूर्वक दिया गया दण्ड भी उतना ही बुरा है।
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