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धर्म एवं दर्शन >> क्रोध

क्रोध

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :56
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9813

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मानसिक विकार - क्रोध पर महाराज जी के प्रवचन


रामायण के अनेक पात्रों के चरित्र में हमें क्रोध का विविध रूप दिखायी देता है तो उसका एक दूसरा स्वरूप लक्ष्मणजी में भी प्रकट होता है। रावण के जीवन में भी क्रोध पग-पग पर बहुत अधिक मात्रा में दिखायी देता है। क्रोधित रावण किसी को क्षमा नहीं करता। शूर्पणखा उसकी बहन है, पर एक बार जब उसके पति ने रावण के सामने सिर उठाकर रावण को उत्तर देने की चेष्टा की तो वह क्रोध से भर गया और उसने अपने ही जीजाजी का सिर काटने में कोई संकोच नहीं किया। गीधराज ने सीताजी की रक्षा करने के लिये जब उसे चुनौती दी तो उसने क्रोध में आकर उनके पंख काट दिये। विभीषणजी ने उसके कल्याण की बात कही, पर उसका स्वभाव ऐसा है कि इतनी अच्छी बात कहने पर भी वह क्रुद्ध हो उठा और अपने भाई को लात मारकर लंका से निकाल दिया। रावण का क्रोध प्रतिक्रियाजन्य क्रोध है। परशुरामजी महाराज के जीवन में भी क्रोध विद्यमान है पर उन्होंने अन्याय को मिटाने के उद्देश्य से ही अपने जीवन में क्रोध को स्वीकार किया।

कथा आती है कि सहस्त्रार्जुन ने परशुरामजी के पिता जमदग्नि ऋषि का सिर अन्यायपूर्वक काट दिया। परशुराम जी ने जब देखा कि उसके इस जघन्य कार्य का, उस समय के क्षत्रिय राजाओं ने कोई विरोध नहीं किया, तो उन्होंने यह निर्णय लिया कि मैं सहस्त्रार्जुन के साथ-साथ इन सब राजाओं को भी दण्ड दूँगा। उनका उद्देश्य तो अच्छा था पर वहाँ पर भी क्रोध का अतिरेक हो गया।

परशुरामजी का तर्क था कि जो अन्याय करता है वह दण्ड का पात्र तो है ही पर जो अन्याय को देखकर चुप रह जाय उसको भी अवश्य ही दण्ड मिलना चाहिए। यद्यपि परशुराम जी के द्वारा क्रोध, प्रारंभ में तो अन्याय को मिटाने और लोक-कल्याण के लिये ही स्वीकार किया गया था, पर धीरे-धीरे वह उनके स्वभाव का अंग बन गया। वे यह मानने लगे कि क्रोध के द्वारा मनुष्य को डराया जा सकता है और बुराई करने से रोका जा सकता है। यह बात यद्यपि ठीक प्रतीत होती है पर समस्या तब आती है कि जब क्रोध भीतर बैठ जाय और इतना अधिक बढ़ जाय कि वह दुःख देने लगे। परशुरामजी का क्रोध भी अंत में बढ़कर आतंक और भय की सृष्टि करने लगा और वह दुःखदायी बन गया।

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