धर्म एवं दर्शन >> मानस और भागवत में पक्षी मानस और भागवत में पक्षीरामकिंकर जी महाराज
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रामचरितमानस और भागवत में पक्षियों के प्रसंग
मान लीजिए! कोई व्यक्ति फोड़ा हो जाने पर डॉक्टर के पास जाय तथा डॉक्टर कहे कि हम तुम्हारे फोड़े का ऑपरेशन करेंगे और कहीं आज ही फोड़ा फूट जाय, ठीक हो जाय और दूसरे दिन फिर वह डॉक्टर को दिखाने के लिए जाय और डॉक्टर उससे कहे कि भई! तुम्हारा फोड़ा तो ठीक हो गया है, लेकिन सत्य की रक्षा के लिए मुझे तो ऑपरेशन करना ही होगा। ऐसे डॉक्टर के पास जाना कौन पसन्द करेगा? नहीं भई! उसका उद्देश्य तो व्यक्ति को स्वस्थ बनाना था, अगर बिना ऑपरेशन के ही वह स्वस्थ हो गया तो फिर छुरी चलाने की क्या आवश्यकता है?
भगवान् राम को यह चिन्ता नहीं थी कि मेरा कहा हुआ झूठा हो जायेगा। भगवान् का तात्पर्य यह था कि सुग्रीव! तुमने जो कहा, वह भी सत्य है और मैंने जो कहा, वह भी सत्य है। कई लोग यह मानते हैं कि सत्य तो एक ही होगा। यदि कोई इसका बहुत आग्रह करे तो इसका उत्तर यह होगा कि जैसे ब्रह्म की एकता के साथ-साथ ब्रह्म की अनेकता को भी स्वीकार करते हैं, उसी प्रकार सत्य एक भले ही हो, पर भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के लिए सत्य का जो रूप होता है, वह भी ईश्वर के समान ही भिन्न-भिन्न होता है। प्रभु ने जो कहा उसमें उनका व्यंग्य यह था कि आज तो उल्टी बात हो रही है। तुम वह कह रहे हो जो मेरा सत्य है और मैं वह सत्य कह रहा हूँ जो तुम्हारा सत्य है और सचमुच भगवान् ने यह दिखा दिया कि तुम्हारे लिए अभी सत्य वही है जो मैं कह रहा हूँ, तुम क्रम से आगे बढ़ो।
निष्कामता अधिक श्रेष्ठ है, तत्त्वज्ञान बड़ा श्रेष्ठ है, लेकिन अगर प्रारम्भ में ही व्यक्ति की सकामता की निन्दा करके और उसको निष्कामता की महिमा सुना करके निष्काम बनाने की चेष्टा की जाय, तो इसका परिणाम यह होगा कि वह व्यक्ति निष्काम तो नहीं बन पायेगा और केवल निष्कामता का दम्भ और निष्कामता का दिखावा ही उसके जीवन में आ जायेगा। इसलिए प्रारम्भ में ही किसी को निष्काम बनाने की चेष्टा नहीं करना चाहिए, बल्कि प्रारम्भ में तो उसकी सकामता की ही पुष्टि की जानी चाहिए।
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