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धर्म एवं दर्शन >> सुग्रीव और विभीषण

सुग्रीव और विभीषण

रामकिंकर जी महाराज

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2017
पृष्ठ :40
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9825

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सुग्रीव और विभीषण के चरित्रों का तात्विक विवेचन


लक्ष्मणजी से कहा कि –

जेहिं सायक मारा मैं बाली।
तेहिं सर हतौं मूढ़ कहँ काली।। 4/17/5

लक्ष्मणजी प्रसन्न तो हुए, पर ‘कल’ शब्द सुनकर प्रसन्नता में कमी रह गयी, क्योंकि यदि सचमुच मारना होता तो इसे कल पर क्यों डालते? क्या इसके लिए सेना जुटानी है क्या? उसको मारने में क्या रखा है? और फिर आप क्यों मारेंगे? मैं तो हूँ ही, मैं अभी जाता हूँ और उसको मार आता हूँ। तब उस क्रोध का रहस्य खुल गया, उस क्रोध में जो करुणा और प्यार था, वह प्रकट हो गया कि जब प्रभु ने देखा कि लक्ष्मणजी तो सुग्रीव को मारने के लिए जा रहे हैं, तो तुरन्त लक्ष्मण का हाथ पकड़ लिया और कहा कि सुग्रीव डरपोक है, जब उसका डर बालि के मरने से मिट गया तो वह मुझे भूल गया। अब फिर उसे डरा दो, लेकिन केवल डराना है, मारना नहीं है। डराने में भी मर्यादा है कि जितना डरपोक है उतना ही डराना है। इतना मत डराना कि भाग खड़ा हो। ऐसा डराना कि इधर ही लौटकर आये, भाग न जाये। डराने का अर्थ ईश्वर को अपने से दूर करना नहीं है, पास बुलाना है –

तब अनुजहिं समुझावा रघुपति करुना सींव।
भय देखाइ लै आवहु तात सखा सुग्रीव।। 4/18

सुग्रीव मेरा मित्र है, अपना है, मैं जो क्रोध कर रहा हूँ, यह स्नेह के कारण कर रहा हूँ, उसको बुलाने के लिए कर रहा हूँ। हनुमान् जी जब प्रभु के स्वभाव में यह परिवर्तन पाते हैं तो सोचते हैं कि कभी-कभी साधन करने वाले को यह भ्रम हो जाता है कि मैंने प्रभु को पाया है तो अपने पुरुषार्थ पर अभिमान हो जाता है कि अपनी साधना के बल पर मैंने ईश्वर को पाया है, लेकिन यदि सुग्रीव के प्रसंग पर दृष्टि डालें तो हमें साधना का अभिमान कभी होगा ही नहीं –

जब कब निज करुना-सुभावतें, द्रवहु तौ निस्तरिये।
तुलसिदास बिस्वास आन नहिं कत, पचि-पचि मरिये।।

-विनय पत्रिका, 186/6

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