ई-पुस्तकें >> कुमुदिनी (हरयाणवी लोक कथाएँ) कुमुदिनी (हरयाणवी लोक कथाएँ)नवलपाल प्रभाकर
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ये बाल-कथाएँ जीव-जन्तुओं और बालकों के भविष्य को नजर में रखते हुए लिखी गई है
यह सुनकर किरोड़ीमल अपनी पत्नी लक्ष्मी देवी को लेने के लिए चल देता है। उसके दो-तीन दिन बीतने पर उसके पिता दुर्गाप्रसाद स्वर्ग सिधार गया। उसके जाने के गम में उसकी पत्नी शान्ति भी स्वर्ग सिधार गई। अब दोनों का दाह-संस्कार कर दिया गया। किरोड़ीमल के पास इसकी कोई खर नहीं पहुंचाई गई। उनकी सारी जायदाद के वारिश सेठ दुर्गाप्रसाद के छोटे भाई जो कि दो थे (हजारी और हंसी) बन बैठे। ऊधर किरोड़ीमल भी पन्द्रह-बीस दिन में अपनी ससुराल पहुंचा। प्राचीन काल में पैदल चलने का मार्ग था इसलिए समय ज्यादा लग जाता था। अपनी ससुराल में वो चार-पांच दिन तक रुका और आराम किया। उसने अपने ससुर सेठ घीसाराम से एक दिन कहा-
देखिए पिताजी, मेरे माता-पिता की हालत नाजुक है अतः मेरा आप से हाथ जोड़कर निवेदन है कि आप अपनी लड़की लक्ष्मी को जल्दी से तैयार कर दें मैं कल सुबह जल्द ही यहां से रवाना हो जाऊंगा। मुझे घर पहुंचने में फिर से पन्द्रह-बीस दिन लगेंगे। जब आया था तो अकेला था सो जल्दी ही पहुंच गया था।
सेठ घीसाराम बोला-जैसी आपकी इच्छा, बेटे। मैं तो चाहता था कि आप मेरे घर एक-दो महीने रुकते, मगर अब जाने की जल्दी है तो मैं रोकूंगा भी नहीं। मैं आज ही आपके जाने का बंदोबस्त करता हूं। सेठ घीसाराम ने अपनी पत्नी निर्मला देवी से कहा - सुनती हो निर्मला, दामाद जी कह रहे हैं कि वो कल सुबह ही अपने घर रवाना होंगे। अपने मां-बाप अर्थात समधी और समधन की हालत नाजुक बता रहा है। अतः तुम लक्ष्मी बेटी को तैयार कर देना। कल सुबह ही चले जायेंगे। किरोड़ीमल जो अपनी बैलगाड़ी लेकर आया है वो पैदल आदमी की चाल से चलता है। अतः इन्हें पहुंचने में महीना भर लगेगा।
निर्मला बोली- अजी ये तो बड़ी जल्दी हुई मैं तो सोचती थी कि दामाद जी हमारे यहां कम-से-कम महीना भर तो रुकेगा ही। चलो जैसी उनकी मर्जी।
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