ई-पुस्तकें >> कुमुदिनी (हरयाणवी लोक कथाएँ) कुमुदिनी (हरयाणवी लोक कथाएँ)नवलपाल प्रभाकर
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ये बाल-कथाएँ जीव-जन्तुओं और बालकों के भविष्य को नजर में रखते हुए लिखी गई है
वह यह कहकर अन्दर चली गई। जिधर लक्ष्मी का कमरा था। लक्ष्मी अपनी सहेली सुनैना से बातें कर रही थी। निर्मला ने लक्ष्मी से कहा - लक्ष्मी चल अपने गहने और कपड़े संभाल ले कल सुबह ही तुझे अपनी ससुराल जाना है।
यह सुन सुनैना बोली- अरी ताई, अभी जीजाजी को आए हुए चार-पांच दिन ही तो हुए हैं और अभी वह जाना चाहता है। ऐसी भी क्या जल्दी है। वैसे भी अब उसे दर्शन जाने कब होंगे, और पन्द्रह-बीस रोज रुक जाते तो क्या हो जाता।
यह सुनकर निर्मला बोली- नहीं री हमारी लक्ष्मी के सास-ससुर की हालत खराब है। उन्होनें ही लक्ष्मी से मिलने की इच्छा जाहिर की है। इसलिए इसकी तैयारी करने में तुम इसका हाथ बंटा दो।
ठीक है ताई, सुनैना ने कहा। और एक कमरे की तरफ बढ़ गई। सुनैना अपनी सहेली लक्ष्मी से कहा -देखो बहन कल सुबह हम दोनों अलग-अलग हो जायेंगी चलो मैं तुम्हारा श्रृंगार कर देती हूं और उसकी आँखों में अश्रु आ गए मगर आंसू छिपाने के लिए सुनैना ने गहने उठाने के लिए मुंह फेर लिया। परन्तु उसके अश्रुओं को लक्ष्मी ने भांप लिये। लक्ष्मी का भी यही हाल हो रहा था। अश्रुओं को रोकने की कोशिश नाकामयाब रही। सुनैना ने उस तरफ मुड़कर देखा तो लक्ष्मी के गले जा लगी और बुरी तरह लिपट गई ऐसा लग रहा था मानो आज दोनों सहेलियां पूरी पृथ्वी को ही पानी से तर-बतर कर देंगी। बड़ी देर के बाद दोनों अलग-अलग हुई। अब सुनैना उसके साथ बातें करने लगी। दोनों रात को सोई तक नहीं। सुबह के चार पता ही नहीं कब बज गये। अब भी लक्ष्मी का कुछ श्रृंगार बाकी था। निर्मला ने बाहर से आवाज लगाई तो सुनैना ने कहा - बस कुछ देर और, अभी लेकर आई।
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