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कुमुदिनी (हरयाणवी लोक कथाएँ)

नवलपाल प्रभाकर

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :112
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9832

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ये बाल-कथाएँ जीव-जन्तुओं और बालकों के भविष्य को नजर में रखते हुए लिखी गई है

जब लक्ष्मी कमरे से बाहर निकलकर आई तो ऐसा लग रहा था मानो सारा सौंदर्य उसके अन्दर समाहित हो गया हो। आज वह साक्षात लक्ष्मी स्वरूपा ही लग रही थी। उसकी विदाई के लिए गांव मौहल्ले के सभी औरत-बच्चे पुरुष आए। सभी की आँखों से पानी बह रहा था। सभी ने गीली आँखों से उसे विदा किया। गांव से बाहर कच्चे रास्ते पर सेठ किरोड़ीमल का गढ़वाला अपनी बैलगाड़ी लिये खड़ा था। अब लक्ष्मी को बैलगाड़ी में बैठाया गया तो सभी फफक-फफक रोने लगे। अब किरोड़ीमल सेठ घीसाराम के पास विदा लेने के लिए आया। उसने घीसाराम के चरणों में प्रणाम किया और पास खड़ी निर्मला के भी पैर छुए। निर्मला ने उसे आशीर्वाद देते हुए और आंखें पोंछते हुए कहा- बेटा हमने लक्ष्मी को बड़े ही लाड-प्यार से पाला है। इसके लिए हमने सदा फूल बिछाए हैं मगर यह तुम्हारे साथ कांटों पर भी सोने को तैयार है। अगर इससे कोई भी भूल हो जाए तो उसे माफ करना।

बैलगाड़ी में बैठी लक्ष्मी के पास निर्मला ने जाकर कहा- बेटी आज से तेरा पति ही तेरा भगवान है। यह जिस तरह से कहें वैसा ही करना। जिसमें पति को खुशी हो पत्नी को वैसा ही करना चाहिए। एक पतिव्रता औरत सूरज तक को भी विचलित कर देती है। उसके मन में परपुरुष का भान तक भी नहीं होता। चाहे पति कितना भी बीमार क्यों न हो जाए मगर पतिव्रता औरत को चाहिए कि वह उसकी तन-मन से सेवा करे और उसके चरणों में अनुरक्त रहे। केवल शारीरिक भोग ही एक औरत का लक्ष्य नहीं होना चाहिए। शारीरिक संबंध तो एक वेश्या के भी अनेक लोगों से होते हैं मगर उसे वह शांति नहीं मिलती जो एक पतिव्रता औरत अपने बीमार पति के चरणों में रहकर भी प्राप्त कर लेती है।

यह तर्क संगत संदेश देते-देते उसकी आँखों से पानी बह निकला और लक्ष्मी उसके गले से लगने को अपने हाथों को रोक ही न पाई।

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