ई-पुस्तकें >> कुमुदिनी (हरयाणवी लोक कथाएँ) कुमुदिनी (हरयाणवी लोक कथाएँ)नवलपाल प्रभाकर
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ये बाल-कथाएँ जीव-जन्तुओं और बालकों के भविष्य को नजर में रखते हुए लिखी गई है
कुछ समय पश्चात् सेठ घीसाराम, निर्मला देवी के पास जाकर रुंधे गले से बोला- चलो निर्मला अब इन्हें चलने दो। अब इनका समय हो गया है।
निर्मला, लक्ष्मी को छोड़कर सेठ घीसाराम के गले से लिपटकर रोने लगी। घीसाराम ने उसका ढाढस बंधाया और गाड़ीवान को गाड़ी हांकने का आदेश दिया। जब गाड़ी चली तो गाड़ी के साथ-साथ भी कुछ लोग और औरतें चली गाड़ी धीरे-धीरे चल रही थी। सभी की आँखों से विदाई के आंसू निकल रहे थे। पेड़ भी चुपचाप खड़े थे। उनका पत्ता तक नहीं हिल रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे कि गांव वालों की तरह आज ये भी लक्ष्मी को विदा कर रहे हों, मगर तभी हवा का एक झोंका आया और रास्ते के दोनों और खड़े वृक्षों को बुरी तरह से हिलाया। उन्होंने अपने पत्तों की वर्षा कर दी। ऐसा लग रहा था वे उसे उपहार दे रहे हों। पत्तों के सिवाय उनके पास था भी क्या? वे तो उसे केवल पत्ते ही दे सकते थे। करीब एक महीने के सफर के बाद ही वे अपने घर पहुंचे। सेठ किरोड़ीमल के आने-जाने में दो-सवा दो महीने में अपने घर पहुंचे थे। इस सारी जमीन-जायदाद पर उसके चाचाओं ने अधिकार कर लिया। किरोड़ीमल के पूछने पर पता चला कि उसके मां-बाप मर चुके हैं। यह सुन कर किरोड़ीमल पागलों की भांति रोने लगा। उसके साथ लक्ष्मी भी रो रही थी। गांव वाले उनको देख लेते मगर उनको सांत्वना देने कोई नहीं आया। तब लक्ष्मी ने देखा कि कोई भी नहीं आ रहा है तो वह खुद ही अपने आंसुओं को पोंछते हुए बोली- सुनिए जी, यह कैसा गांव है जो किसी को सांत्वना तक नहीं दे सकता, रहने को जगह कौन देगा। ये मेरे कुछ रुपये हैं जो मेरी मां ने विदा करते समय दिए थे। ये लो इनसे आप भोजन का प्रबंध करो।
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