ई-पुस्तकें >> देवकांता संतति भाग 5 देवकांता संतति भाग 5वेद प्रकाश शर्मा
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चंद्रकांता संतति के आधार पर लिखा गया विकास विजय सीरीज का उपन्यास...
'आपने इसे नहीं पहचाना शेरसिंह जी।'' गुरुवचनसिंह बोले- ''अरे हां - आप पहचानेंगे भी कैसे, उस वक्त यह एक साल ही का तो था, जब जालिम सुरेंद्रसिंह ने इससे आपको जुदा किया था - ये गौरवसिंह हैँ - वही गौरव...।''
''क्या.... गौरव?' अलफांसे चौंककर बोला- ''वही गौरव है ये - हमारा भतीजा!''
''जी हां - वही गौरवसिंह..!'' गुरुवचनसिंह ने कहा- ''जिसे आप बचपन ही से दुनिया का सबसे बड़ा ऐयार बनाना चाहते थे। जिसके पैदा होते ही आपने कहा था कि आप इसे ऐसा शेर बनाएंगे जिस पर सारी दुनिया गौरव करेगी। इसीलिए तो आपने इसका नाम गौरवसिंह रखा था।''
''गौरवसिंह. हमारा बेटा।'' कहते हुए अलफांसे ने उसे बांहों में भर लिया।
गौरव भी मुहब्बत के साथ उससे लिपट गया। न जाने क्यों - अलफांसे की आंखों में आंसू आ गये - गौरवसिंह के नेत्र भी छलछला उठे थे।
''इतने दिन तक कहां थे चाचा?'' तड़पकर गौरवसिंह कह उठा।
''क्या करता बेटे...?'' अलफांसे भी भाबुक हो उठा- ''जालिम सुरेंद्रसिंह ने मुझे तुमसे जुदा कर दिया। मगर उससे बदला लेने के लिए मैं फिर दुनिया में आ गया हूं। उस जन्म में न सही, तुझे इस जन्म में इस काबिल जरूर बनाऊंगा कि दुनिया तुझ पर गर्व करे।''
कुछ वक्त - इसी तरह की मुहब्बत भरी बातों में बीत गया और फिर सभी आस-पास बैठ गए और इस तरह की बातें होने लगीं।
''तुम मेरे गायब होने से घबराए तो न थे गुरुवचन?'' अलफांसे ने पूछा।
'नहीं...!'' गुरुवचनसिंह बोले- ''मैं जानता था कि अब आप इस जन्म के वे अलफांसे नहीं रहे हैं, जिन्हें कोई भी छोटा-मोटा ऐयार झूठी-सच्ची बातों में फंसाकर धोखा दे देता था। अब तो आप अलफांसे के साथ-साथ पिछले जन्म के शेरसिंह भी हैं। आप यहां के चप्पे-चप्पे से वाकिफ हैं। आपको दोस्त और दुश्मन का अंतर मालूम हो चुका है। अत: अब आप यहां अलफांसे नहीं शेरसिह हैं और इस जमाने में कोई भी ऐसा ऐयार नहीं है जो हमारे शेरसिंह का मुकाबला कर सके इसलिए घबराने की बात ही न थी।''
'लेकिन - फिर भी मैं अचानक तुमसे बिना कुछ कहे-सुने ही गायब हो गया था...।'' अलफांसे ने मुस्कराते हुए कहा।
'नहीं -- आप खत तो छोड़ ही गए थे।'' गुरुवचनसिंह ने कहा।
''खत !'' अलफांसे ने चौंककर पूछा- ''कौन-सा खत - हम कोई खत छोड़कर न गए थे।''
'क्या मतलब?'' चौंकने की बारी गुरुवचनसिंह की थी-- ''आप मेरे लिए कोई खत छोड़कर नहीं गए थे?''
''ये तुम क्या कह रहे हो?'' अलफांसे अजीब तरद्दुद में फंसा हुआ था- ''तुम्हें किसी तरह का धोखा हुआ है। मैं तुम्हारे लिए कोई खत छोड़कर नहीं गया था। हमारे पास इतना वक्त ही कहां था कि हम तुम्हारे लिए कोई अलफाज लिख सकते।''
''ये आप कैसी बातें करते हैं?'' गुरुवचनसिंह अपने ही तरद्दुद में थे-- ''आपका वह खत अभी तक मेरे पास है।''
''दिखाओ तो सही...।'' अलफांसे ने खत के लिए गुरुवचनसिंह के सामने अपना हाथ फैलाकर कहा।
गुरुवचनसिंह ने बहुत जल्दी से वह खत निकाला और अलफांसे के हाथ पर रखा। गौरवसिंह और महाकाल अपने चेहरों पर अजीब-सी उलझन के भाव लिए अलफांसे को देख रहे थे। अलफांसे की उगलियों ने जल्दी-जल्दी वह खत खोला और लिखाई पर नजर पड़ते ही वह बोला-- ''यह लिखाई तो हमारी नहीं है!'' कहने के बाद उसने गुरुवचनसिंह की तरफ देखा- ''तुम्हें ये खत कहां से मिला?''
''सुरंग के उस चौराहे से जहां से आप गायब हो गए थे।'' गुरुवचनसिंह ने कहा-- ''मैं समझ रहा था कि आप मेरे पीछे ही आ रहे हैं, ड्रसीलिए मैं सुरंग के एक मोड़ पर मुड़ गया, काफी आगे जाकर मुझे पता लगा कि आप मेरे पीछे नहीं आ रहे हैं। मैं बड़ा चकराया। आपको कई बार आवाजें भी दीं, लेकिन आपकी तरफ से मुझे किसी तरह का जवाब नहीं मिला। इसके बाद मैंने आपको चारों ओर ढूंढ़ा तो दाईं तरफ की सुरंग में यह खत मिला।''
उसकी बात सुनते-सुनते अलफांसे ने वह खत पढ़ भी लिया था। पूरा खत पढ़ने के बाद उसके होंठों पर बड़ी गहरी मुस्कान उभर आई और वह बोला- ''दलीपसिंह के ऐयारों नें तुम्हें बड़ा बुरा धोखा दिया है गुरुवचन और तुम धोखे में आ भी गए थे।''
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