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उपन्यास >> आशा निराशा आशा निराशागुरुदत्त
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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...
‘‘परन्तु पिता जी! यह तो नित्य राजनीति में होता है। किसी स्थान के लिए दो प्रत्याशी होते हैं और जब एक सफल हो जाये तो हारा हुआ प्रत्याशी उसे बधाई देने जाता ही है। मैं भी यही करने जा रहा हूं।’’
पिता को यह बात पसन्द नहीं आयी। उसने कन्धों को ऊपर उठा अपने मन का असन्तोष प्रकट किया और चुप कर रहा।
रात सोने से पहले तेज ने पूछा, ‘‘मां! तुम भी ऐसा ही समझती हो जैसा पिता जी समझते हैं?’’
‘‘मैं तुम्हारे वहां जाने को अनुचित नहीं समझती। हाँ, यदि तुम न जाना चाहो तो वह भी अनुचित नहीं होगा।’’
‘‘तब मैं जाऊंगा।’’
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