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उपन्यास >> आशा निराशा

आशा निराशा

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :236
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7595

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जीवन के दो पहलुओं पर आधारित यह रोचक उपन्यास...


‘‘पहले तो जनता के मन में यह भ्रम निर्माण किया है कि वह ही एकमात्र नेता हैं जो देश में ऐक्य रखने की सामर्थ्य रखते हैं। इस भ्रम के आश्रय जब भी वह किसी को अपने विचार के विपरीत कार्य करते देखते हैं, वह अपने पद से त्याग-पत्र देने की धमकी दे देते हैं। अज्ञानी जनता डर जाती है और भले, बुद्धिमान और ईमानदार लोग जो पण्डित नेहरू से सैकड़ों गुणा अधिक योग्य और बुद्धिमान हैं, वे मौन हो जाते हैं और देश के सब गुण्डे, शोदे, अवसरवादी और पद-लोलुप नेहरू जी की मूर्खता का समर्थन करने लग जाते हैं।

‘‘यही सब तानाशाह करते हैं। तानाशाही का सार है जनता में भ्रम उत्पन्न कर देना कि उसके बिना देश टूक-टूक हो जायेगा, देश में बेईमान, देशद्रोही और लोभी-लालची भरे हुए हैं और यदि उस तानाशाह को परेशान किया गया तो देश में विप्लव खड़ा हो जायेगा। यही, बिना अपवाद के सब तानाशाही देशों में किया जा रहा है और यही भारत में हो रहा है।’’

‘‘और पाकिस्तान में क्या हो रहा है?’’

‘‘वहां भी यही कुछ हो रहा है। वहां इस्लाम खतरे में है, का भूत खड़ा किया जा रहा है। यह उन लोगों द्वारा किया जा रहा है जो कभी नमाज भी नहीं पढ़ते और जिन्होंने कभी परमात्मा अथवा हजरत मुहम्मह को स्मरण भी नहीं किया। यही आज भारत में नेहरू राज्य कर रहा है। देश-भक्ति, गरीबों की परवरिश, हिन्दू-मुस्लिम ऐक्य इत्यादि नारे लगाकर लोगों में यह भ्रम उत्पन्न कर दिया गया है कि बिना नेहरू के इस समय देश में एक भी व्यक्ति नहीं जो ऐसा कर सके और जब कोई भला मनुष्य यह बताने का यत्न करता है कि नेहरू न तो देशभक्त है और न वह रूस और चीन की सत्ता देश में चाहता है, न ही हिन्दू-मुसलमान ऐक्य में सहायक है, कारण यह कि दोनों समुदायों में एकमयता होने में वह बाधक है। मुसलमान की पृथकता बनाये रखने का वह समर्थन करता है। वह मुसलमानों में सदा उन तत्त्वों का समर्थन करता है जो मुसलमानों की अनन्त काल तक पृथकता के वकील हैं।

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