उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
उमाशंकर देख रहा था कि पिता का मुख एकदम गम्भीर हो गया है। उसे भय लग रहा था कि बाप-बेटी में तूँ-तूँ मैं-मैं न हो जाये।
उसने इतना ही कहा, ‘‘पिताजी! अब तो वह आ रही है। वह और उसके घर को लोग चालाक हैं और छलना खेल रहे हैं, यह अब विचारणीय नहीं है। वह भाई को अपना काम आरम्भ करने पर बधाई और आशीर्वाद देने आयी है। इस कारण मतभेद की बात नहीं कहनी चाहिए।’’
‘‘परन्तु बेटा! बच्चों को मार्गदर्शन तो कराना ही चाहिए। मैं नाराज नहीं हूँ। केवल उसे बताना चाहता हूँ कि इस प्रकार धोखा देने के क्या-क्या परिणाम हो सकते हैं। इनका ज्ञान तो उनको कराना ही चाहिए।’’
‘‘समझाने की बात ठीक है, परन्तु मैं तो डाँटने से मना कर रहा हूँ। वह अपनी ससुराल चली गयी है और प्रत्यक्ष रूप में वहाँ प्रसन्न है। इस कारण हमें उससे नाराज होने में कोई कारण नहीं है।’’
‘‘मगर तुमको जो वहाँ की छूत लग रही है? तुम भी हमारे साथ वैसे ही छलना खेल सकते हो, जैसे वह अपने ससुराल वालों से खेल रही है।’’
इस युक्ति को उमाशंकर समझा नहीं। इस पर भी वह चुप रहा। उसने बात बदल दी, ‘‘मैं समझता हूँ कि माताजी को बता देना चाहिए कि प्रज्ञा परिवार सहित आ रही है और मध्याह्न तथा रात का खाना यहाँ लेगी।’’
‘‘मगर मैं तो आज एक कार्य से रमण अय्यर के घर जा रहा हूँ। मेरी पेंशन का एक झगड़ा उठ खड़ा हुआ है। उसे मैं समझाना चाहता हूँ।’’
‘‘आप किस समय जा रहे हैं?’’
‘‘मैं सायंकाल पर जाऊँगा और फिर भोजनोपरान्त लौटूँगा।’’
‘‘तो जाने से पहले प्रज्ञा को समझा दीजिएगा कि आपकी पहले की एंगेजमैण्ट है, उसे आप रद्द नहीं कर सकते।’’
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