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उपन्यास >> नास्तिक

नास्तिक

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :433
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7596

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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...


‘‘वह तुम आओगे तो बताऊँगी। परन्तु बहुत मजेदार बात है!’’

‘‘तब तो जरूर ही आऊँगा।’’

‘‘हाँ!’’

प्रज्ञा इत्यादि सब पैदल ही घर की ओर चल पड़ीं।

उमाशंकर, शिवशंकर और महादेवी उनको जाते देखते रहे। जब वे सड़क मुड़कर आँखों से ओझल हुई तो महादेवी आँखों को रूमाल से पोंछती हुई वापस लौट पड़ी।

‘‘तुम तो रो रही हो?’’ शिव ने पूछा।

‘‘हाँ! मैं तुम्हारे पिता के व्यवहार पर लज्जित हूँ।’’

‘‘तो पिताजी को ऐसा लज्जास्पद व्यवहार करने से रोकना चाहिये था।’’

‘‘परन्तु वह मेरे पति हैं। उनको समझाना मेरे बस का रोग नहीं है।’’

‘‘परन्तु हमारे पति नहीं हैं। हम तो समझा सकते हैं।’’

‘‘तो ऐसा करो, उमा से राय कर लो। इसे सब कुछ विदित है।’’ इस समय सब ड्राइंग रूम में आ गये थे। उमाशंकर ने बात बदल दी और पूछ लिया, ‘‘आज का पर्चा कैसा कर आए हो?’’

‘‘अपने विचार से बहुत अच्छा कर आया हूँ।’’

‘‘माताजी! भोजन, पिताजी के आने पर होगा क्या?’’

‘‘हाँ! शिव कहता है कि वह कह गए हैं कि दस-पन्द्रह मिनट तक लौट रहे हैं।’’

‘‘हाँ!’’ शिव ने व्याख्या सहित बता दिया, ‘‘पिताजी मार्केट की ओर जा रहे थे। मैंने पूछा किधर भागे जा रहे हैं? वह बहुत जल्दी-जल्दी चल रहे थे। वह कहने लगे, ‘तुम चलो। मैं दस-पन्द्रह मिनट में आता हूँ।’’

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