उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘उन्होंने बताया है कि उन्हें क्रोध चढ़ आया था, अब कुछ शान्त हो रहा है। दस-पन्द्रह मिनट में ठीक हो जाएगा और वह लौट आएँगे। बस, इतना कह वह मार्केट की ओर चल पड़े।’’
इस बात पर आशा करते हुए सब ड्राइंग रूम में ही बैठ गये और पिता की प्रतीक्षा करते हुए इधर-उधर की बातें करते रहे।
‘‘यह नगीना तो बहुत समझदार हो रही प्रतीत होती है?’’ शिव ने कह दिया।
‘‘तो उसकी समझदारी का कार्ड उसके मुख पर लगा हुआ है?’’ माँ ने पूछ लिया।
‘‘माताजी! वह तो सबके मुख पर होता है। कभी पढ़ने वाला अपनी अज्ञानता के कारण पढ़ नहीं सकता अथवा गलत पढ़ लेता है और कभी बहुत भली-भाँति पढ़ तथा वहाँ लिखे का अभिप्राय समझ लेता है।’’
‘‘और तुम उसके मुख पर लिखे को पढ़-समझ गए हो?’’
‘‘माँ! समझ तो यह आया है कि वह अब सुशील और समझदार हो गई है। तीन महीने में ही अन्तर आ गया है।’’
उमाशंकर हँस पड़ा और हँसते हुए बोला, ‘‘वह समझदार हुई है अथवा नहीं, यह तो पता नहीं, मगर तुम इन तीन महीने में कुछ अधिक सूझ-बूझ रखने वाले हो गए समझ आये हो?’’
माँ हँस पड़ी। उस समय रविशंकर ड्राइंग रूम में प्रवेश करता दिखाई दिया। उसको देख कर ही महादेवी की हँसी निकली थी। रविशंकर ने ड्राइंग रूम में दाखिल होते हुए कहा, ‘‘मैं छुपा हुआ देख रहा था कि वे जाते हैं अथवा नहीं। उनके तीस नम्बर पर घूमते ही मैं छुपे स्थान से निकल आया और इधर को चल पड़ा था।’’
अब तो तीनों, माँ और दोनों लड़के भी हँसने लगे थे।
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