उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
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प्रज्ञा इत्यादि अभी कुछ ही दूर गई थी कि सरस्वती ने गम्भीर भाव में कहा, ‘‘देखो बेटी! ‘जहाँ आगा-पीछा देखे नहीं, लेते पिछला नाम’ वहाँ नहीं जाना चाहिए।’’
माँ के इस लोकोक्ति को कहने से प्रज्ञा भी गम्भीर हो गई, परन्तु कमला अपने स्वभाववश बोल उठी, ‘‘और दूसरों का लाल माथा देख अपना माथा फोड़ लेना चाहिए?’’
सरस्वती ने कहा, ‘‘मगर जहाँ बेइज्जती हो, वहाँ जाने से खुद्दारी को ठेस पहुँचती है।’’
बात प्रज्ञा ने की। उसने कहा, ‘‘माँ ठीक कहती हैं। अपमान किये स्थान पर न जाना ही उचित है, परन्तु इसका मतलब नहीं कि अपने मन में किसी के प्रति द्वेष उत्पन्न होने देना चाहिए। पिताजी अनुभव तथा आयु में हमसे अधिक हैं। इस कारण उनकी बात सदैव शान्त चित्त हो सुननी चाहिए। मानें या न मानें, बात दूसरी है। उसके लिए काल, स्थान तथा हालात निर्णय करते हैं। मैंने उस समय यही ठीक समझा कि वहाँ से चले आना चाहिए।
‘‘रही पुनः वहाँ जाने की बात? वह मैं इस समय नहीं कह सकती। हाँ, इतना समझ गई हूँ कि संसार की अनेक ऊँची-नीची स्थितियों में यह भी एक है।’’
‘‘परन्तु भाभी! यह तो विचार करना ही चाहिए कि इस दुर्घटना में दोष किसका है?’’
‘‘नहीं, इस प्रकार नहीं। विचार करने की बात यह है कि हमारे व्यवहार में कोई दोष तो नहीं है। दूसरे के मनोद्गारों पर चर्चा तथा चिन्तन व्यर्थ है।’’
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