उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
प्रज्ञा ने ड्राइंगरूम में पहुँचते ही घंटी बजाई तो उनका सेवक रमजान आ पहुँचा। प्रज्ञा ने कहा, ‘‘जल्दी से कॉफी तैयार कर पहले ले आओ।’’
नौकर गया तो अब्दुल हमीद ने कहा, ‘‘यासीन को टेलीफोन कर दो कि मैं आया हूँ और रात के प्लेन से लौट रहा हूँ। सीटें बुक की हुई हैं। मैं उससे तुरन्त मिलना चाहता हूँ।’’
प्रज्ञा ने टेलीपोन का चोंगा उठाया और दुकान का नम्बर घुमा दिया। सम्बन्ध बना और वहाँ घंटी खड़कने लगी तो प्रज्ञा ने कहा ‘‘अब्बाजान! आइए और बात आप खुद कर लीजिए।’’
अब्दुल हमीद आया और चोगा कान से लगा, जब उधर से बोलने की आवाज आई तो पूछने लगा, ‘‘कौन बोल रहा है?’’
‘‘ज्ञानस्वरूप, मौडर्न क्रौकरी ऐण्ड हाउस-वेयर्स।’’
‘‘यह किसका नम्बर घुमा दिया है?’’ अब्दुल हमीद ने प्रज्ञा को डांट के भाव में पूछा। इस समय चोंगे में आवाज आई, ‘‘अब्बाजान! मैं यासीन बोल रहा हूँ।’’
‘‘तो तुम यासीन हो?’’
‘‘जी हाँ। यासीन उर्फ ज्ञानस्वरूप। मैंने दुकान का नाम बदल लिया है।’’
‘‘और मकान का नाम भी बदल दिया है?’’
‘‘जी! तो आप मकान से बोल रहे हैं? लेकिन अब्बाजान! आप डांट किसको रहे थे? मैं तो आपकी डांट सुनने का आदी हूँ न? बस, उसी कारण समझ गया था कि आप हैं?’’
अब्दुल हमीद ने कहा, ‘‘देखो! मैं अभी यहाँ पहुँचा हूँ और रात नौ बजे के प्लेन से बम्बई लौट रहा हूँ। मुझे वहाँ बहुत जरूरी काम है। तुम फौरन यहाँ चले आओ। मैं तुमसे मिलने आया हूँ।’’
‘‘अब्बाजान! आ रहा हूँ। अभी दो-तीन मिनट में यहाँ से चल दूँगा।’’
इस समय लगभग एक बजा था। प्रज्ञा ने कॉफी सबके लिए प्यालों में डालते हुए कहा, ‘‘खाना बनने में कुछ देर थी। हम कहीं खाने के लिए गए हुए थे और वहाँ से बिना खाये ही लौट आये हैं।’’
‘‘कहाँ गए थे?’’
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