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उपन्यास >> नास्तिक

नास्तिक

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :433
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7596

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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...


‘‘मैं तो उसे अभी भी हिन्दू समझता हूँ। मगर वह अपने को क्या समझती है, यह वह खुद ही बता सकती है।’’

‘‘अगर वह अपने को मुसलमान माने तो क्या कहेंगे?’’

‘‘कुछ नहीं। यह उसकी अपनी मर्जी है। वह बालिग है और अपने को हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, मतलब यह कि कुछ भी कह सकती है।’’

‘‘मान लीजिए कि वह अपने को मुसलमान कहे तो आप उसे क्या कहेंगे?’’

‘‘कुछ नहीं। यह उसके अपने इख्तयार की बात है। वह हिन्दु हो या मुसलमान, वह मेरी लड़की तो हर हालत में ही रहेगी।’’

‘‘मगर मैंने सुना है कि आप उससे नाराज थे?’’

‘‘हाँ! मगर इसलिए नहीं कि वह मुसलमान बनी है। हम इसलिए नाराज थे कि उसने शादी की और हमें बताया ही नहीं। न शादी के पहले, न शादी के पीछे। उसने शादी की और खाविन्द के साथ कश्मीर चली गई। आखिर मैं उसका पिता हूँ। फिर उसकी माँ भी है। उसने उसे भी बताया नहीं।’’

‘‘जब उमाशंकर ने टेलीफोन किया और वह हमारे घर अपने खाविन्द को लेकर आई तो हमने उसे माफ कर दिया। उसने वह गलती बचपने की वजह से की थी।’’

एकाएक अब्दुल हमीद ने प्रज्ञा को बुला लिया। उसने कहा, ‘‘ए बहू! जरा इधर आना तो।’’

प्रज्ञा बच्चों में बैठी, उन्हें कहानी सुना रही थी। जब उसके श्वसुर ने बुलाया तो वह उठकर आई और अपने पिता तथा श्वसुर के समीप कुर्सी खिसका बैठ बोली, ‘‘हुक्म करिए।’’

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