उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘मैंने तुम्हारे वालिद साहब से पूछा था कि तुम हिन्दू हो या मुसलमान? यह कहते हैं कि वह तो तुम्हें हिन्दू समझते हैं और तुम अपने को क्या समझती हो, यह तुम जानो। इसलिए मैं यह जानना चाहता हूँ कि तुम क्या हो?’’
‘‘अब्बाजान!’’ प्रज्ञा ने सहज भाव से कह दिया, ‘‘यह मजहब हर एक का अपनी मर्जी पर है। इस कारण यह किसी को बताने की जरूरत नहीं होती। किसी दूसरे का इससे कोई ताल्लुक भी नहीं। इस पर भी आप अब्बाजान हैं। इस कारण आपको बताती हूँ। मैं इन्सान हूँ, खुदादोस्त इन्सान।’’
‘‘मैं समझा नहीं। यह खुदा-दोस्त इन्सान कहाँ का मजहब है?’’
‘‘यह सब दुनिया में है। हमारी एक किताब में लिखा है कि दुनियाभर के इन्सानों को दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है...।’’
प्रज्ञा को रोककर अब्दुल हमीद ने कहा, ‘‘तुम किस जुबान में बात कर रही हो? मुझे कुछ समझ नहीं आई?’’
‘‘क्या समझ नहीं आया?’’
‘‘तुम कह रही हो कि इन्सानों की दो हैं, क्या दो हैं?’’
‘‘जी! मेरा मतलब है जमायतें। दुनिया-भर के इन्सान दो जमायतों में बँटे हुए हैं। एक परमात्मा, मेरा मतलब है खुदा को मानने वाले और दूसरे खुदा को न मानने वाले।’’
‘‘हिन्दू बुत-परस्त तो खुदा-दोस्त नहीं हो सकते?’’
‘‘कुछ बुत-परस्त भी खुदा को मानते हैं। इससे वे खुदा-परस्तों में ही होंगे। हाँ, उनका खुदा उस पत्थर की तस्वीर में होता है। एक मुसलमान का खुदा कैसा है, मैं नहीं जानती। मगर वे भी जाहिरा तौर पर कहते हैं कि खुदा को मानते हैं। इसलिए मैं दोनों में फरक नहीं समझती। मैं खुदा को मानने वालों में हूँ।’’
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