उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
|
5 पाठकों को प्रिय 391 पाठक हैं |
खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
अब्दुल हमीद इस दलील को समझ नहीं सका। इस कारण रविशंकर ने लड़की की बात को समझ कर समझाने के लिए कह दिया, ‘‘भाई-साहब! यह लड़की कह रही है कि इन्सान दो जमायतों में बँटे हुए हैं खुदा-दोस्त और खुदा को न मानने वाले। एक इन्सान खुदा-दोस्त न होता हुआ भी, झूठ-मूठ ही अपने को खुदा-दोस्त कह सकता है। वैसे कुछ इन्सान ऐसे भी हो सकते हैं जो अपने को ‘एगनास्टिक’ (नास्तिक) कहते हैं। हकीकत में वे खुदा को मानते होते हैं। यह उनकी ना-समझी के कारण है।
‘‘इस अपने को गलत समझने की बात छोड़कर इन्सान की दो ही जमायते हैं।’’
‘‘तो मैं क्या हूँ?’’ अब्दुल हमीद ने प्रज्ञा से पूछ लिया।
‘‘जो आप सच्चे दिल से कहेंगे, मैं मान जाऊँगी। वैसे मैं नहीं जानती कि आप खुदा को मानते हैं या नहीं मानते।’’
‘‘पर मैं मुसलमान हूँ। इस वास्ते खुदा को मानता हूँ। मैं हर रोज कम-से-कम दो वक्त नमाज पढ़ता हूँ।’’
‘‘मगर अब्बाजान!’’ उत्तर प्रज्ञा ने ही दिया, ‘‘खुदा को मानना एक बात है और नमाज वगैरहा पढ़ना दूसरी बात है। नमाज पढ़ते हुए भी खुदा से इन्कार हो सकता है।’’
‘‘यह कैसे?’’
‘‘उसके हुक्म को न मानने से। यह ऐसे ही जैसे कई लोग पार्लियामेंट में पहुँचते हैं कांग्रेस के टिकट पर मेम्बर बनकर, मगर कांग्रेस के उसूलों को नहीं मानते और मनमानी करते हैं।
‘‘इसी तरह कोई कहे कि मैं खुदा को मानता हूँ और झूठ बोले, चोरी करे, खुदा के बेटों से नफरत करे, किसी बे-गुनाह को तंग करे तो उसके कहने से वह खुदा-दोस्त नहीं कहा जा सकता। वह अपने को धोखा दे रहा होता है और लोगों को भी धोखा दे रहा माना जायेगा।
‘‘कहने मात्र से कोई खुदा-दोस्त नहीं कहा जा सकता। जैसे कोई गांधीजी की जय-जयकार करने वाला कांग्रेसी नहीं भी हो सकता।’’
|