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उपन्यास >> नास्तिक

नास्तिक

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :433
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7596

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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...

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रात प्रज्ञा ने मुहम्मद यासीन को पूछ लिया, ‘‘अब्बाजान कुछ नाराज मालूम होते हैं?’’

‘‘मैं इसमें कारण जानता हूँ, परन्तु तुम्हें इसकी चिन्ता नहीं करनी चाहिए। यह मकान और कनाट प्लेस वाली दुकान मेरे नाम है। हमारे रहने और गुजारे के साधन मेरे कब्जे में हैं। इसलिए तुम्हें निश्चिन्त हो अपने काम में लगा रहना चाहिए।’’

प्रज्ञा इस काम की बात को समझती थी। उसने कहा, ‘‘मुझसे भूल हो गई मालूम होती है जो मैंने इनको अपनी अवस्था का जिक्र कर दिया था।

‘‘मैं तो यह समझी थी कि मेरी इस अवस्था की बात सुन इनको प्रसन्नता होगी। मगर आपके अब्बाजान को तो इसकी फिक्र लग गई मालूम होती है।’’

‘‘देखो डिअर! तुम चिन्ता न करो। मैं अपने वालिद साहब का अनादर नहीं करना चाहता। परन्तु मैं तुमसे मुहब्बत करता हूँ और उसकी माँग को भलीभाँति समझता हूँ।’’

प्रज्ञा हँस पड़ी। हँसते हुए बोली, ‘‘आपके कथन में दिन-प्रतिदिन हिन्दी बहुत अधिक घुसने लगी है।’’

‘‘हाँ! कुछ दिन हुए मैं अपने एक परिचित विश्वानाथन से मिलने गया था। वह मेरे साथ पढ़ता था। अब सरकार की ‘ला-मिनिस्ट्री’ में नौकर है।’’

‘‘उसने मुझे बताया है कि जुबान जो हम बोलते हैं, हमारे ख्यालात के इजहार करने का जरिया है। यदि वह ठीक हो तो ख्यालात भलीभाँति प्रकट हो सकते हैं।’’

पति की आज की बातचीत की भाषा में खिचड़ी पकती अनुभव कर प्रज्ञा हंस पड़ी। उसने बताया, ‘‘आपका मित्र ठीक कहता है और आप तुरन्त ही उसकी सम्मति पर व्यवहार आरम्भ करने लगे हैं। इससे मुझे प्रसन्नता हुई है। हमें इस मुल्क की प्राचीन भाषा की ओर चलना चाहिए। वह भाषा अधिक सुन्दर, अधिक मधुर और सशक्त है। उसके शब्दों में रस और भाव कूट-कूट कर भरा हुआ है।’’

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