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उपन्यास >> नास्तिक

नास्तिक

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :433
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7596

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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...


‘‘अब मैंने मन में यह निश्चय किया है कि कम-से-कम तुम्हारे साथ शुद्ध हिन्दी भाषा में बात करूँगा।’’

‘‘और मैं विश्वास से कहती हूँ कि आप अपने भावों को अधिक सुगमता और सुन्दरता से व्यक्त कर सकेंगे। कहें तो मैं इसमें आपकी सहायता कर सकती हूँ।’’

‘‘कैसे?’’

‘‘कुछ उपन्यास आपके पढ़ने के लिए ले आऊंगी। उनके पढ़ने से बोलचाल की हिन्दी का अभ्यास हो जाएगा।’’

अगले दिन, बम्बई के काफिले को हवाई-पत्तन पर विदा कर, अपनी गाड़ी में जब पति-पत्नी, सरवर और नगीना लौट रहे थे तो प्रज्ञा को अम्मी का व्यवहार एकदम बदला हुआ प्रतीत हुआ। उसने मोटर में ही बात कर दी, ‘‘अम्मीजान! कल आप जब हमें दिल्ली दिखाने जा रही थीं, तो कुछ नाराज लग रही थीं।’’

‘‘हाँ! मैं ऐसा ही जाहिर कर रही थी।’’

‘‘पर अम्मी! क्यों? मैंने कुछ अपराध किया था क्या?’’

‘‘बस यही कि तुम इतने बड़े-बड़े हिन्दी ज़बान के इल्फाज़ अपने श्वसुर के सामने बोलती रही हो। यही तुम्हारा सबसे बड़ा कसूर था और मुझे हुक्म हो गया था कि मैं तुम्हारे साथ सख्ती का सलूक करूं।

‘‘अब हुक्म देने वाला सामने नहीं और मैं अपने हकीकी जज़बात का इज़हार करने लगी हूँ। मैं तुम से अजहद मुहब्बत करती हूँ और वह खुद-ब-खुद फूट-फूटकर निकलने लगी है।’’

‘‘पर अम्मी!’’ नगीना जो यह बातचीत समझ रही थी, बोल उठी, ‘‘तुम वालिद साहब से भी ज्यादा भाभीजान से मुहब्बत करती हो?’’

‘‘बेटी! उनसे मुहब्बत तो कभी भी नहीं की। बीवी के फरायज के मुताबिक उनका आदर करती हूँ। वह अब भी कर रही हूँ। मगर कल वह बीवी के फरायज से कुछ ज्यादा के लिए हुक्म सादर कर रहे थे। कल मैं बीवी के फरायज से मान रही थी, मगर आज इन्सानी हक-हकूक की वजह से इनकार कर रही हूँ।’’

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