उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
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अगले दिन प्रातःकाल अल्पाहार लेते हुए प्रज्ञा ने नगीना से कह दिया, ‘‘नगीना बहन! तुम्हारे लिए अभी तो अपने बगल का कमरा तय किया है। कमरा कुछ बड़ा है, मगर उसका प्रयोग तुम न कर सको तो मुझे बताना। मैं उसका प्रयोग तुम्हें बता दूँगी।
‘‘शेष काम तुम्हारे भाईजान ने अपने जिम्मे ले लिया है। वह तुम्हें सायंकाल बता देंगे।’’
नगीना इस प्रबन्ध से सन्तुष्ट थी; परन्तु वह बोली, ‘‘भाभीजान! आप हमारी जबान में बात क्यों नहीं कर सकतीं?’’
‘‘इसलिए कि मैं चाहती हूँ कि आप सब मेरी जबान सीख जायें। तुम्हारे भाईजान तो मेरी जबान जानते हैं। उनको बोलने का अभ्यास नहीं था। अब यह अभ्यास कर रहे हैं।’’
‘‘मगर यह क्यों?’’
‘‘इसलिए कि हम उस जबान को देव-भाषा समझते हैं अर्थात् यह खुदा की ज़बान है। मेरा मतलब यह है कि यह ज़बान देव-भाषा के बहुत नजकीद है।’’
‘‘देखो नगीना! मैंने इसी ज़बान में एम.ए. किया है और मैं इसके गुणों को जानती हूँ।’’
‘‘क्या सिफत है इस ज़बान में?’’
‘‘एक तो यह है कि दुनिया में सबसे पुरानी किताबों के साथ हमारा सम्पर्क बनाती हैं। उसे समझने की सामर्थ्य देती हैं। दूसरे, इस ज़बान के ग्रन्थों में वह गुण है जो अन्य किसी ज़बान के ग्रन्थों में नहीं हैं। ये ग्रन्थ अध्यात्म विद्या से भरे हुए हैं। खुदा को तो जानती हो?’’
‘‘नाम सुना है, कभी देखा नहीं।’’
‘‘बस, इस जबान के ग्रन्थ में उसको दिखाने की ताकत है।’’
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