उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘तो मैं भी आपके साथ चलूँगी।’’
प्रज्ञा यही तो चाहती थी। इस कारण उसने कह दिया, ‘‘अपनी अम्मी से पूछ लो।’’
‘‘क्यों अम्मी? भाभीजान के साथ जाऊँ या अकेली घूमने जाऊँ?’’
‘‘भाभी के साथ जाना चाहिए। बहू! कब तक लौटोगी?’’
‘‘राज खाने से पहले लौट आऊँगी।’’
‘‘देख लो! यह बेलगाम लड़की वहाँ तुम्हारे माता-पिता और भाइयों को तंग भी कर सकती है।’’
‘‘अम्मीजान! वे कोई बच्चे तो है नहीं। यदि इसने कुछ नावाज़िब हरकत की तो वे इसके कान पकड़ इसे ठीक राह पर कर देंगे। उनको कोई मना नहीं कर सकता।’’
‘‘नहीं बेटी! तुम इस पर निगाहबानी रखोगी तो ठीक रहेगा। वे लोग तो रिश्तेदारी का ख्याल कर इसकी बेहूदगियों पर आँखें मूँद भी सकते हैं। मगर दिल में तो इसके लिए और इसके खानदान के विषय में बुरे ख्याल बना लेंगे।’’
‘‘क्यों नगीना बहन! तुम बेलगाम हो या नहीं और फिर वह अपनी लगाम मेरे हाथ में दे सकोगी?’’
‘‘भाभीजान! इन तीन दिनों में मैंने देखा है कि आप गाड़ीवान नहीं हैं, जो मुझे घोड़े की तरह लगाम लगाकर रखेंगी। वैसे मैं अमल में अपने पर मुकम्मल काबू रखती हूँ।’’
‘‘यही कह रही हूँ।’’ प्रज्ञा ने कहा, ‘‘मैं तुम्हें अपने रथ के साथ घोड़े की भाँति जोतकर नहीं ले जा सकती। यह इसलिए कि मैं रथवान् नहीं। न ही तुम रथ की घोड़ी हो। तुम एक इन्सान की बच्ची हो और इन्सान की भाँति ही अपने को नियन्त्रण में रख सकोगी।’’
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