उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘अब तो मैं बम्बई-भर की तस्वीरें लेती हुई घूमा करती थी। मेरे कुछ फोटोग्राफर वहाँ की ‘इलस्ट्रेटिड वीकली’ में भी छप सके हैं।’’
नगीना की बात खत्म होते-होते ये प्रज्ञा के पिता के घर जा पहुँचीं। इनके आने की सूचना मिली तो महादेवी घर से निकल आई। इनको ड्राइंग-रूम में बैठा वह कहने लगी, ‘‘प्रज्ञा! आने से पहले टेलीफोन कर देतीं तो उमाशंकर घूमने न जाता।’’
‘‘माताजी! लड़की को माँ के घर में आने के लिए स्वीकृति लेने की जरूरत नहीं होती।’’
‘‘मैं स्वीकृति-अस्वीकृति की बात नहीं कर रही। मैं तो उमाशंकर के घर पर रहने की बात कह रही हूँ।’’
‘‘माताजी! मैं रात भोजन के समय पर ही जाऊँगी। तब तक तो दादा आ ही जायेंगे।’’
‘‘वह कह गया है कि सायंकाल चाय के समय लौटेगा। वह अपना क्लीनिक यहाँ शुरू करना चाहता है।’’
‘‘यह तो ठीक करेंगे। डॉक्टर यहाँ कोई है भी तो नहीं।’’
‘‘है, एक मार्केट में। मगर सुना है पिछले पाँच वर्ष से उसका काम कुछ चल नहीं सका। उमा के पिताजी यह चाहते थे कि यह कनाट प्लेस के आस-पास कहीं जगह ले। मगर उमाशंकर ने यहीं क्लीनिक बनाने का निश्चय किया है।’’
‘‘बरमादे में तुम्हारे पिताजी का दफ्तर और उसके पीछे जो कमरा है, वे दोनों इस काम के लिए उसने माँगे हैं। उमाशंकर उसके फर्नीचर का प्रबन्ध करने गया हुआ है।’’
अब प्रज्ञा ने अपने साथ आई अपनी ननद का परिचय दे दिया, ‘‘मेरे श्वसुर की मँझली पत्नी की लड़की है। इसके तीन भाई और हैं। वे सब छोटे हैं। वे अपने अब्बाजान के साथ बम्बई चले गए हैं।’’
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