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उपन्यास >> नास्तिक

नास्तिक

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :433
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7596

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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...


‘‘तुम्हारे पिता ने इससे उस दिन दावत के समय होने वाली गुफ्तगू को पसन्द नहीं किया।’’

प्रज्ञा ने इस बात की ओर ध्यान न देकर पूछ लिया, ‘‘पिताजी कहाँ हैं?’’

‘‘वह खाने के बाद सोया करते हैं। अभी पन्द्रह-बीस मिनट में बाहर आयेंगे।’’

‘‘माँ! मैं उस दिन की दावत से सर्वथा संतुष्ट हूँ।’’

‘‘क्या संतोष की बात हुई है?’’

‘‘एक तो यह कि पिताजी को अब्बाजान के स्वरूप का ठीक-ठीक ज्ञान हो गया है। वह संतोषजनक नहीं है। जो कुछ मैंने उनके विषय में समझ रखा था, वही पिताजी को समझ आया प्रतीत होता है।’

‘‘क्या समझ आया है?’’

‘‘यही कि वह एक गंवार व्यक्ति हैं। दूसरे यह कि वह ‘मॉर्डन’ नास्तिक हैं। तीसरे यह कि इनका मुख्य कार्य, बम्बई में तस्करी का माल बेचना है। चौथे यह कि वह मुतअस्सिब मुसलमान हैं।’’

‘‘मेरी सास से वह झगड़ा इस बात पर करते रहे हैं कि उसने हमारी शादी शरअ के मुताबिक क्यों नहीं कराई और मैं उनकी फारसी छोड़ हिन्दी भाषा में क्यों बात करती हूँ।’’

‘‘अम्मी बता रही थीं कि मेरे नाम पर भी उनको बहुत भारी आपत्ति है।’’’

‘‘इसी प्रकार की, परन्तु इससे उलट बात तुम्हारे पिताजी भी कह रहे थे। वह कहते थे कि तुमने अपना विवाह हिन्दू तरीके से क्यों नहीं कराया?’’

‘‘और माँ! तुम क्या कहती हो?’’

‘‘मैंने भी कुछ कहा है। मगर वह तुम्हें नहीं बताऊँगी।’’

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