उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘क्यों माँ? कुछ गाली दी है मुझे?’’
‘‘नहीं, गाली नहीं। किसी प्रकार का अपशब्द भी नहीं। बस इतना ही बताऊँगी।’’
‘‘अच्छा माँ! यह बता दो, किसलिए नहीं बताना चाहतीं।’’
‘‘यह बताने से तो बात का भाव पता चल जाएगा और वही तो बताना नहीं चाहती।’’
‘‘अच्छा, यह बताओ, तुम्हें उस दिन दावत कैसी लगी है?’’
‘‘दावत तो जैसी उम्मीद थी, वैसी ही थी। एक मुसलमान के घर जो कुछ खाया जाता है, वही कुछ था। विस्मय इस बात पर हुआ था कि तुम भी माँस खाने लगी हो।’’
‘‘वह तो मैं पहले भी खाती थी। मैं समझती हूँ आप लोग भी खाते हैं। फर्क सिर्फ यह है कि पहले मैं और आप सब उन जीवों का माँस खाते थे जो जिबह किए जाने पर चीख-पुकार नहीं कर सकते थे।’’
‘‘माँ! यह ऐसे ही हैं जैसे काली माँ के सामने बलि के बकरे का मुख बाँध कर उसको चीख-पुकार करने नहीं दिया जाता। फरक यह है कि बलि के बकरे का मुख पुजारी बाँध देता है और वनस्पतियों का मुख परमात्मा ने बन्द किया हुआ है।’’
‘‘मगर माँ! पुजारी ने तो बलि का मुख इसलिए बाँधा होता है, जिससे उसके यजमान दया अनुभव कर बलि वापस ही न कर लें और परमात्मा ने वनस्पतियों का मुख इस कारण बन्द कर रखा है कि उनके पूर्वजन्म के कर्म से उनकी जबान छीन ली गई है। मगर जहाँ तक हमारा सम्बन्ध है दोनों काम समान रूप में बढ़िया अथवा घटिया हैं।’’
‘‘इस कारण मैं न तो माँस खाने की लालसा करती हूँ, न ही इससे अब अरुचि रखती हूँ।’’
माँ ने बात बदल दी, ‘‘क्यों नगीना बेटी! बम्बई क्यों नहीं गईं?’’
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