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उपन्यास >> नास्तिक

नास्तिक

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :433
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7596

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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...


‘‘अम्मी! मुझे यह समझ आया है कि मुझे अब दिल्ली में ही रहना है। इस वास्ते यहाँ के तौर-तरीके सीखने के लिए भाभीजान की सोहबत में रहना मुनासिब लगा है।’’

‘‘दिल्ली में क्यों रहना है?’’

‘‘वह वजह है जो सब लड़कियों को घर बदलने में होती है।’’

‘‘ओह! तो कोई घर तुम्हारी अम्मी ने तजवीज़ किया है?’’

‘‘जी नहीं! मैं अपना घर चुनने खुद आई हूँ और अब्बाजान की राय नहीं मानूँगी। वैसे अब्बाजान भी मुझे दिल्ली के लिए बुक किए हुए हैं, मगर उनकी बुकिंग को मैं मंजूर नहीं कर रही।’’

‘‘वह कहाँ के लिए कह रहे हैं?’’

‘‘माताजी! यह बताने का हुक्म नहीं है।’’

‘‘तो मैं अम्मी से एक ही क्षण में माताजी हो गयी हूँ।’’

‘‘बात यह है कि हमारे घर में अम्मियों की भरमार है। इसलिए छोटी अम्मी, बड़ी अम्मी कहना पड़ता है। इससे बचने के वास्ते मैं कल ही सोच रही थी कि बुलाने का कोई मुख्तसिर तरीका बनाना चाहिए। जब भाभीजान आपको माताजी कह रही थीं तो मैंने भी आपके लिए यही नाम मंजूर कर लिया। अपनी अम्मी के लिए मैंने माँ का इल्फाज़ मुकर्रर किया है। दूसरी बम्बई वाली अम्मियों के वास्ते भी मैं गौर कर रही हूँ।’’

प्रज्ञा और महादेवी हँस रही थीं। इस पर भी नगीना गम्भीर भाव ही कह रही थी। जब वह कह चुकी तो प्रज्ञा ने कहा, ‘‘इसकी बातें सुन मुझे यह बहुत ही प्यारी लगने लगी है।’’

‘‘मेरी कौन-सी बात प्यारी लगी है, भाभीजान?’’ नगीना ने मुस्कराकर पूछा।

‘‘तुम पूछो, कौन-सी प्यारी नहीं लगी?’’

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