उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘तो यह ही बता दो। इससे इसके उलट का इल्म हो जाएगा?’’
‘‘एक बात ठीक प्रतीत नहीं हुई। वह यह कि तुम अब्बाजान की बात नहीं मानोगी।’’
‘‘भाभीजान! वह मान सकती ही नहीं। इसलिए अपने इरादे का अभी से ऐलान कर रही हूँ। कल मैंने अब्बाजान को भी अपने मन की बात कह दी थी।’’
प्रज्ञा को समझ तो आ रहा था कि वह किस विषय में कह रही है, परन्तु वह अपनी जानकारी बताना नहीं चाहती थी। इस पर जानकारी का स्रोत बताना पड़ता। इस कारण उसने बात बदल दी। उसने कहा, ‘‘देखो? यदि कहो तो माताजी से कहूँ कि एक प्याला कॉफी पहले आ जाए। नहीं तो दादा के आने पर माताजी चाय पूछेंगी।’’
नगीना चाय से इनकार करने वाली थी कि शिवशंकर कालिज से आ गया। वह बी. ए. में पढ़ता था। उसे आते हुए पहले नगीना ने ही देखा। वह ड्राइंगरूम की ओर मुख किए बैठी थी। उसने शिवशंकर को देख कह दिया, ‘‘लो, यहाँ के एक वली-अहद तो आ गए।’’
माँ और बेटी दोनों ने घूमकर देखा तो शिव को देख हँस पड़ीं। शिव अपनी पुस्तकें अपने कमरे में रखकर ही आया था। माँ ने उसे आते देख पूछ लिया, ‘‘बताओ, चाय अभी पियोगे अथवा दादा के आने पर?’’
‘‘माँ! आज मैंने अपनी श्रेणी के साथियों को दावत दी थी। दादा को भी वहाँ बुलाया था। कालिज के कुछ प्राध्यापक भी वहाँ थे। खूब खाया है। इस कारण अभी कुछ लेने की इच्छा नहीं हो रही।’’
‘‘कितना कुछ खर्च आए हो?’’
‘‘कुछ अधिक नहीं। तीस के लगभग मित्र तथा अध्यापक थे। केवल एक सौ अस्सी रुपये खाने-पीने पर और बीस रुपये बैयरों को टिप, बस यही खर्च हुए हैं।’’
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