उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘यह ठीक ही कर रही हो। तुम अपनी भाभी प्रज्ञा से भी ज्यादा समझदार मालूम होती हो।’’
‘‘नहीं पिताजी! भाभी बहुत ही लायक हैं। यह डब्बल एम.ए. हैं। इनको किसी की मदद की जरूरत नहीं रही होगी। पर मैं तो सिर्फ हायर सैकेण्डरी तक पढ़ी हूँ। मुझे दूसरों की मदद की जरूरत पड़ेगी।’’
इस समय बाहर मोटर का हार्न बजा तो शिव उठकर बाहर चला गया। वह समझ गया था कि दादा आ गया है। दो मिनट में दोनों भाई भीतर आ गए। उमाशंकर ने जब नगीना को देखा तो पूछ लिया, ‘‘तो तुम बम्बई नहीं गई?’’
‘‘वहाँ कुछ मजेदार नहीं रहा। मैंने पूर्ण नगर को बीसियों बार छान डाला है। अब दिल्ली देखने ठहर गई हूँ।’’
‘‘हमारे फोटो का क्या हुआ?’’ उमाशंकर ने बात बदलते हुए पूछा।
‘‘रील आज यहाँ फोटोग्राफर को दे आई हूँ। कल तक उनके प्रिन्ट देगा।’’
‘‘मैं अपनी फोटो देखना चाहता हूँ।’’
‘‘चौबीस ‘शौट्स’ लिए हैं। देखें, कितने ठीक आते हैं।’’
महादेवी ने सेवक को आज्ञा दी थी कि उमाशंकर के आते ही चाय और उसके साथ खाने को ले आना। अतः सेवक इस समय चाय ले आया।
चाय सेण्टर टेबल पर रखी गई तो सब समीप-समीप हो गए और प्रज्ञा सबके लिए चाय बनाने लगी।
उमाशंकर ने कहा, ‘‘पिताजी! मैं अपने नाम का नामपट्ट लिखा लाया हूँ और उसे कोठी के बाहर लगा दूँगा। उचित फर्नीचर का आदेश भी दे आया हूँ और साथ ही अपने लिए कुछ पुस्तकों इत्यादि का भी आर्डर दिया है। आशा है कि इस महीने के आखिर तक सब ठीक करवाकर मैं नियम से यहाँ बैठने लगूँगा।’’
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