उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
|
5 पाठकों को प्रिय 391 पाठक हैं |
खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
7
रात आठ बजे तक प्रज्ञा माँ के घर पर रही। ठीक आठ बजे वह उठी और अपने घर को चली तो उमाशंकर उनको छोड़ने जाने के लिए तैयार हो गया। उसने कहा, ‘‘प्रज्ञा! आओ, तुम्हें मोटर में छोड़ आता हूँ।’’
‘‘बहुत खूब! चलिए, मैं आपका धन्यवाद करूँगी।’’
वे उठे ही थे कि ज्ञानस्वरूप अपनी मोटर में पत्नी और बहन को लेने आ पहुँचा।
वह सीधा दुकान से आ रहा था। उसे विदित था कि ये दोनों यहाँ हैं। इस कारण लौटते हुए वह उनको घर ले जाने के विचार से आया था।
उमाशंकर, प्रज्ञा और नगीना इत्यादि ड्राइंग-रूम से निकले तो ज्ञानस्वरूप घर में प्रवेश करता दिखाई दे गया।
‘‘तो आप आ गये हैं?’’ प्रज्ञा ने पूछा।
‘‘हाँ, मैंने सोचा मैं भी जरा माताजी की कदम-बोसी कर लूँ।’’
‘‘हाँ! चरण-स्वर्श करने ही चाहिएँ।’’
वे दोनों ड्राइंग-रूम में वापस जा पहुँचे। बाहर रह गये उमाशंकर और नगीना। इसे ठीक अवसर देख उमाशंकर ने जेब से लिफाफा निकाल नगीना को दिया तो नगीना ने उसे तुरन्त अपने पर्श में रख लिया।
इस प्रकार नगीना मन में यह समझी कि उसने अपने दिल्ली में ठहरने के उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रथम पग उठाया है।
रात का भोजन कर अम्मी सरवर, ज्ञानस्वरूप, प्रज्ञा और नगीना कॉफी लेने के लिए बैठे हुए थे। सरवर ने पूछ लिया, ‘‘माता-पिता खुश है न?’’
‘‘अम्मीजान! माताजी ने उस दिन भी बहुत स्नेहमय व्यवहार किया था। आज भी वह सदा की भाँति मिली थीं। दादा तो इस पुनर्मिलन में सहायक ही हुए हैं। पिताजी की बर्फ पहले से तो पिघली मालूम होती है, परन्तु अभी बहुत कुछ कमी है।’’
|