उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
एकाएक प्रज्ञा ने नगीना की ओर देखकर कहा, ‘‘तुम्हारा कमरा अब तैयार हो गया है।’’
‘‘हाँ, भाभीजान! मैं जाने से पहले देख गई थी।’’
‘‘और देखो, यदि परमात्मा के दर्शन करने हैं तो ठीक चार बजे उठ, स्नानादि से छुट्टी पाकर पाँच बजे से पहले मेरे पूजा के कमरे में आ जाना। तुम्हें वही शिक्षा दूँगी जो तुम्हारे भाई साहब को दे रही हूँ। वह भी वहाँ होंगे।’’
‘‘तब तो मैं अभी सो जाना चाहती हूँ। नहीं तो उस समय तक जाग नहीं सकूँगी।’’
यूँ भी नगीना उत्सुक थी अपने सोने के कमरे में जाने के लिए। उसकी पर्श में पड़ी चिट्ठी की याद उसे बेताब कर रही थी। वह उसको पढ़ने के लिए उत्सुक थी।
वह वहाँ से उठी और पर्स को कन्धों पर डाले हुए अपने कमरे में चली गई।
सूटकेस खाली कर उसने कपड़े वार्डरोब में रख दिये गए थे। उसका कैमरा और पुस्तकें अलमारी में रखी हुई थीं। उसके गुसल के लिए साबुन-तेल इत्यादि सोने के कमरे के साथ वाले बाथरूम में रख दिया गया था।
यह सब प्रबन्ध देख वह प्रसन्न थी। उसे समझ आया कि बम्बई से यहाँ अधिक सुख-सुविधा प्राप्त होगी। उसने द्वार भीतर से बन्द किया और उमाशंकर का पत्र निकाल पढ़ने लगी। पत्र पढ़ा और उसी समय चिट्ठी लिखने के लिये कागज निकाल वह उत्तर लिखने बैठ गयी।
उसने चिट्ठी फारसी अर्फ़ों में लिखी। हिन्दी वह नहीं जानती थी। अंग्रेज़ी में लिखने से डरती थी कि कहीं कोई शब्द गलत न लिखा जाये। उसने लिखा—
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