उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
|
5 पाठकों को प्रिय 391 पाठक हैं |
खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘जनाब आली! आपका मेरे नाम आपके घर आकर रहने का दावत-नाम मिला और पढ़ कर दिल में बहुत खुशी हासिल हुई।
‘‘मैं इससे यह समझी हूँ कि हम दोनों में कशश एकदम होने से इसमें कुछ गैबी वजूहात है। मेरी तालीम यह बताती है कि हम दोनों के दिल और दिमाग की तरबीयत एक-जैसी है। इसी वजह से हम इकट्ठे ही एक-दूसरे को पसन्द करने लगे हैं।’’
‘‘मगर यहाँ कुछ रुकावटें हैं। पहली रुकावट है वालिद शरीफ की। उन्होंने बिना मुझसे राय किये मुझे किसी दूसरे के लिए मुकर्रर कर रखा है। मैं उसके पास जाकर रहना नहीं चाहती, मगर वालिद साहब इस पर इसरार कर रहे हैं।’’
‘‘दूसरी रुकावट है मेरी बम्बई वाली अम्मी! वह समझती हैं कि मुझे किसी मोमिन के घर को रोशन करना चाहिए और आप उसकी नजर में काफिर हैं, खुदा को न मानने वाले ज़ाहिल हैं।’’
‘‘तीसरी रुकावट है मेरी उम्र की। मैं इस समय उन्नीस साल की हूँ। मुझे अभी दो साल तक अपनी मर्जी से शादी करने की अक्ल नहीं है।’’
‘‘अब इन तीनों रुकावटों को कैसे पार किया जाये, इस पर मैं गौर कर रही हूँ। इनमें से पहली दो मैं खुद समझ लूँगी और तीसरी रुकावट आपके दूर करने की है। आप अगर जनवरी पन्द्रह सन् १९७२ तक मेरा इन्तज़ार करें तो मैं दूसरी दो रुकावटों को पार कर आपके घर स्वयं पैदल चल कर चली आऊँगी।’’
‘‘खुदा का शुक्र है कि आपका घर यहाँ से दूर नहीं। बम्बई और दिल्ली दोनों हिन्दुस्तान में ही हैं और मैं दिल्ली में पहुँच गयी हूँ। बकाया सफर पैदल कर सकती हूँ।’’
‘‘बस, यह जनवरी पन्द्रह सन् १९७२ की इन्तजार का मसलह है। इसका इलाज आप कर सकते हैं। आप बताइये, क्या आप कर सकते हैं? मैं आपकी निहायत मश्कूर रहूँगी।
दीदार के लिए बेताब
नगीना।’’
|