उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
यह चिट्ठी लिख उसे लिफाफे में बन्द कर ड्रेसिंग-टेबल की दराज में रख वह इत्मीनान से सो गयी। वह प्रातः चार बजे उठने के इरादे से लेटी थी।
उसकी नींद खुसी पाँच बजने से पाँच मिनट पहले। जब नींद खुली तो उसे स्मरण हो आया कि उसने भाभी के पूजा-गृह में जाना है। इस पर वह भागी गुसलखाने में। हाथ-मुँह धो, कपड़े पहन वह प्रज्ञा के पूजागृह में जा पहुँची।
कमरे में दस-बारह अगरबत्ती सुलग रही थीं और कमरा सुगन्धि से भरा हुआ था।
प्रज्ञा अभी आसन पर बैठने के लिए आसन के समीप खड़ी थी कि नगीना पहुँच गयी। ज्ञानस्वरूप तो उसके पीछे आया। उसने नगीना को वहाँ देखा तो कहा, ‘‘यह तुम्हारा नया शार्गिद मुझसे ज्यादा कामयाब हो गया है।’’
‘‘देखना है कि यह कहाँ तक पहुँची हुई है। आप में एक गुण आपके घरवालों से अधिक है। वह यह कि आप संस्कारों, मेरा मतलब है कि आदत के अधीन न रह कर बुद्धि के अधीन अपने व्यवहार को बनाए हुए हैं।’’
‘‘मजहब मनुष्य को संस्कारों के अधीन दास बनाकर रखना चाहते हैं, परन्तु मानव की मानवता उसकी अक्ल की वजह से ही है।’’
‘‘देखो नगीना!’’ प्रज्ञा ने बात बदल कर नगीना से पूछा, ‘‘नमाज जानती हो?’’
‘‘बचपन में याद की थी। अब बहुत कुछ भूल चुकी हूँ।’’
‘‘तो ऐसा करो, कागज और कलम लेकर यहां बैठ जाओ और उसे याद कर लिखो। तब तक हम अपने पाठ का अभ्यास करेंगे। देखो, हमें बुलाना नहीं। चुपचाप अपना काम करते रहना। चाहे हमें देखते रहना, मगर बात नहीं करना। हमें बीस मिनट लगेंगे।’’
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