उपन्यास >> नास्तिक नास्तिकगुरुदत्त
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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...
‘‘तुम बताओ, क्या पूछना चाहती हो?’’
‘‘मैं यह जानना चाहती हूँ कि यदि हम खुदा को न मानें तो उसे कुछ नुकसान होगा?’’
‘‘उसे कुछ भी नुकसान नहीं होगा। नुकसान तो हमें होगा।’’
‘‘क्या नुकसान होगा?’’
दोनों उस कमरे में रखी आरामकुर्सियों पर बैठ गयी थीं।
प्रज्ञा बता रही थी, ‘‘मैं जो बता रही थी और जो बताऊँगी, उससे उसके सनातन, मेरा मतलब है सदा एक सार चलने वाले उसूलों (नियमों) का पता चलेगा। उन उसूलों को जानना ही पत्मात्मा को जानना है और उसकी परस्तिश (पूजा) करना है। यही मैं तुम्हारे भाईजान को पिछले छः मास से बता रही हूँ। वह तो बहुत कुछ समझ गए हैं।
‘‘देखो! मैं तुम्हें एक और बात बताती हूँ। तुम इस कुर्सी पर बैठी हो और यह देखो।’’
इतना कह प्रज्ञा ने अपने सिर के बालों से एक सूई निकालकर उसके हाथ में चुभोने के लिए आगे बढ़ाई तो नगीना ने अपना हाथ पीछे हटा लिया।
इस पर प्रज्ञा ने पूछा, ‘‘क्यों, क्या हुआ है?’’
‘‘आप सूई चुभोने लगी थीं न?’’
‘‘हां!’’
‘‘इस वास्ते मैंने हाथ पीछे कर लिया था।’’
‘‘मगर इस कुर्सी को मैं सूई चुभोती हूँ तो यह अपना बाजू पीछे नहीं कर रही।’’ उसने सूई कुर्सी के बाजू में चुभो कर दिखा दी।
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