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उपन्यास >> नास्तिक

नास्तिक

गुरुदत्त

प्रकाशक : सरल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :433
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 7596

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खुद को आस्तिक समझने वाले कितने नास्तिक हैं यह इस उपन्यास में बड़े ही रोचक ढंग से दर्शाया गया है...


‘‘उसमें जान नहीं है। मुझमें तो जान है।’’

‘‘जान क्या होती है?’’ प्रज्ञा ने प्रश्न कर दिया।

नगीना मन में शब्द ढूँढने लगी। वह बताना चाहती थी कि कुर्सी का शरीर वैसा नहीं जैसा उसका है। परन्तु क्या अन्तर है और क्यों है, वह जानती नहीं थी। प्रज्ञा उसके कहने की प्रतीक्षा करने लगी। जब वह मौन बैठी रही तो प्रज्ञा ने कहा, ‘‘देखो, तुम कुर्सी से भिन्न प्रकार की शै हो। कुर्सी जबसे बनी है, इतनी ही बड़ी रहेगी, मगर तुम दिन-ब-दिन बढ़ रही हो। कुर्सी इसे महसूस नहीं करती। तभी सूई चुभोने पर इसने हाथ पीछे नहीं किया।’’

‘‘भाभी! यह फरक तो मैं समझ रही हूँ।’’

‘‘और यदि तुम अपने चारों ओर देखोगी तो इस दुनिया में दो प्रकार के पदार्थ दिखाई देंगे। एक जानदार, जिनको अंग्रेजी में ‘लिविंग बीइंग’ अथवा प्राणी कहते हैं और दूसरे बेजान अथवा जड़ पदार्थ। ये अप्राणी कहाते हैं।’’

‘‘इस बाहर की दुनिया में हम दो प्रकार के ही पदार्थ देखते हैं। जीवधारी और बेजान।’’

‘‘यह तो मैं समझती हूँ। मगर दोनों में क्या फर्क है? मजहबी लोग कहते हैं कि कुछ में रूह हैं। मैं कहती हूँ, वह दिखाई तो देती नहीं।’’

‘‘अन्तर तो तुम समझती हो। मगर तुम इस फर्क की वजह नहीं बता सकतीं। मैं बताती हूँ। जो जानदार हैं, उनमें कुछ अधिक है जो बेजानदार चीजों में नहीं है। उसका नाम रखा गया है रूह। इसे हम अपनी भाषा में कहते हैं जीवात्मा।’’

‘‘वह कहाँ है? दिखाई क्यों नहीं देता?’’

‘‘यह तुम कल आना तो बताऊँगी। देखो बहन! उस समय जो कुछ बताऊँ उस पर तुम चिन्तन किया करो। आज के लिए इतना काफी है।’’

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